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________________ १०६ का बंध करने पर पहला अल्पतर और सत्रह का बन्ध करके तेरह का बन्ध करने पर दूसरा अल्पतर होता है । इसी प्रकार तेरह का ध करके नौ का बन्ध करने पर तीसरा, नौ का बन्ध करके पांच का बन्ध करने पर चौथा, पांच का बन्ध करके चार का बंध करने पर पांचवां, चार का बन्ध करके तीन का बन्ध करने पर छठा, तीन का बन्ध करके दो का बन्ध करने पर सातवां और दो का बन्ध करके एक का बन्ध करने पर आठवां अल्पतर बन्ध होता है । 10 बंधस्थान दस होने से अवस्थित बंध भी दस ही होते हैं । दो वक्तव्य बन्ध निम्न प्रकार हैं- ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का बन्ध न करके जब कोई जीव वहां से च्युत होकर नौवें गुणस्थान में आता है और वहां संज्वलन लोभ का बन्ध करता है तब पहला अवक्तव्य बन्ध होता है और यदि ग्यारहवें गुणस्थान में आयु का क्षय हो जाने के कारण मरकर के कोई जीव अनुत्तरवासी देवों में जन्म लेता है और वहां सत्रह प्रकृतियों का बन्ध करता है तो दूसरा अवक्तव्य बन्ध होता है । शतक दन सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है, उपशम सम्यग्दृष्टि ही सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है छालिगसेसा पर आसाणं कोइ गच्छेज्जा | २३| उवसंमत्तद्धातो पडमाणो छावलिगसेसाए उवसमसंमत्तद्धाते परति उक्कोसाते, जहन्नेण एकसमयसेसाए उवसमसंमत्तद्धाए सासावणसम्मत्तं कोनि गच्छेज्जा, णो सव्त्रे गच्छेज्जा । - कर्मप्रकृति ( उपशम क० ) चूर्णि कम-से-कम एक समय और अधिक-सेकोई-कोई उपशम सम्यग्दृष्टि सासादन - उपशम सम्यक्त्व के काल में अधिक छह आवली शेष रहने पर सम्यक्त्व को प्राप्त होता है । अतः बाईस का बन्ध करके इक्कीस का बन्ध रूप अल्पतर बन्ध संभव नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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