SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ स्त्री, पुरुष, नपुंसक इन तीन वेदों में से एक समय में एक ही वेद का तथा हास्य-रति व शोक - अरति में से एक समय में एक ही युगल का बंध होता है । अतः मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व तथा तीन वेदों में से कोई दो वेद और हास्य- रति, अरति शोक, इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल को कम करने से कुल छह प्रकृतियों को कम कर देने पर शेष बाईस प्रकृतियां ही एक समय में बन्ध को प्राप्त होती हैं । यह पहला बंधस्थान है । इस बंधस्थान की बाईस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं शतक मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, संज्वलन कषाय चतुष्क, एक वेद, एक युगल, भय और जुगुप्सा । इस बाईस प्रकृति रूप बंधस्थान का बन्ध केवल पहले गुणस्थान में होता है । 2 क्रमशः ( दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व के सिवाय शेष इक्कीस प्रकृतियों का, तीसरे, चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के सिवाय शेष सत्रह का पांचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बंध न होने से शेष तेरह प्रकृतियों का बंध होता है । ये दूसरे, तीसरे और चौथे बंधस्थान हैं । इसके अनन्तर छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बन्ध न होने के कारण शेष नौ प्रकृतियों का ही बन्ध होता है ।आठवें गुणस्थान के अन्त में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बन्धविच्छेद हो जाने से नौवें गुणस्थान के प्रथम भाग में पांच प्रकृतियों का ही बंधस्थान होता है । दूसरे भाग में वेद का अभाव हो जाने से चार का, तीसरे भाग में संज्वलन क्रोध के बंध का अभाव हो जाने के कारण तीन ही प्रकृतियों का बंध होता है। चौथे भाग में संज्वलन मान का बन्ध न होने से दो प्रकृतियों का बन्धस्थान है । पांचवें भाग में संज्वलन माया का भी बन्ध न होने से केवल एक संज्वलन लोभ का www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy