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पंचम कर्मग्रन्थ
१०३ है तब दूसरा भूयस्कार बंध होता है। इस प्रकार से दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों में दो भूयस्कार बन्ध समझना चाहिये। ___ भूयस्कार बंध की तरह दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों में अल्पतर बंध भी दो समझना चाहिये । क्यों अल्पतर बंध भूयस्कार बंध से विपरीत होते हैं । इसीलिये। जब कोई जीव नीचे के गुणस्थानों में नौ प्रकृतियों का बंध करके तीसरे आंदि गुणस्थानों में छह प्रकृतियों का बन्ध करता है तब पहला अल्पतर बन्ध होता है और जब छह का बन्ध करके चार का बन्ध करता है तब दूसरा अल्पतर बंध होता है। लेकिन अवस्थित बन्ध तीन होते हैं। क्योंकि दर्शनावरण कर्म के बन्धस्थान तीन ही हैं और दो अवक्तध्य बन्ध इस प्रकार समझना चाहिये कि ग्यारहवें गुणस्थान में दर्शनावरण का बिल्कुल बन्ध न करके जब कोई जीव वहाँ से गिरकर दसवें गुणस्थान में चार प्रकृतियों का बन्ध करता है तब पहला अवक्तव्य बन्ध होता है और जब ग्यारहवें गुणस्थान में मरण करके अनुत्तर देवों में उत्पन्न होता है.तब वहाँ प्रथम समय में दर्शनावरण कर्म की छह प्रकृतियों का बन्ध करता है, जो दूसरा अवक्तव्य बन्ध है।
इस प्रकार से दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थानों और उनमें दो भूयस्कार, दो अल्पतर, तीन अवस्थित और दो अवक्तव्य बंधों का कथन करने के बाद अब मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बन्धस्थानों और भूयस्करादि बंधों को बतलाते हैं । मोहनीय कर्म के बंधस्थान आदि की संख्या __मोहनीय कर्म की अट्ठाईस उत्तर प्रकृतियाँ हैं । लेकिन उनमें से सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्त मोहनीय का बंध न होने से बंधयोग्य छब्बीस प्रकृतियां हैं । इनमे बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति का, इस प्रकार से कुल दस बंधस्थान होते हैं। वे इस प्रकार हैं
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