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पंचम कर्मग्रन्थ
शब्दार्थ-एगादहिगे- एका दि अधिक प्रकृतियों का बंध होने से, भओ- भूयस्कार बंध, एगाईऊणगम्भि-एकादि प्रकृति के द्वारा हीन बध होने से, अप्पतरो--- अल्पत" ध, तम्मत्तो - उतनी प्रकृतियों का बंध होने से, अवट्टिएओ-अवस्थित बंध, पढभेसमएअबन्धक होने के बाद पुनर्बन्ध के पहले समय में, अवत्तव्योअवक्तव्य बन्ध।
__गाथार्थ एकादि अधिक प्रकृतियों का बन्ध होने से भूयस्कार बन्ध होता है । एकादि प्रकृतियों के द्वारा हीन बंध होने पर अल्पतर बन्ध और उतनी ही प्रकृतियों का बन्ध होन से अवस्थित बन्ध होता है तथा अबन्धक होने के बाद पुनः बंध के पहले समय में बन्ध हो, उसे अवक्तव्य बंध कहते हैं ।
विशेषार्थ-गाथा में भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य बंध के लक्षण बतलाये हैं।
भूयस्कार बंध का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि- 'एगादहिगे भूओ'–एक, दो आदि अधिक प्रकृतियों के बांधने पर भूयस्कार बंध होता है । अर्थात् जैसे एक को बाँधकर छह को बांधना, छह को बांधकर सात को बाँधना और सात को वाँधकर आठ को बाँधना भूयस्कार बंध है।
लेकिन अल्पतर बंध भूयस्कार बंध से उलटा है। यानी 'एगाईऊणगम्मि अप्पतरो'-एक, दो आदि हीन प्रकृतियों का बंध करने पर अल्पतर बंध होता है । अर्थात् जैसे आठ को बांधकर सात को बांधना, सात को बांधकर छह को वांधना और छह को बांधकर एक को बांधना अल्पतर वन्ध कहलाता है।
अवस्थित बंध उस कहते है- तम्मत्तोऽट्ठियओ-जिसमें प्रतिसमय समान प्रकृतियों का बंध हो अथात् पहले समय में जितने कर्मों का बन्ध किया हो, आगे के समयों में भी उतने ही कर्मों का बन्ध
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