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________________ पंचम कर्मग्रन्थ प्रकृतियां, शरीरादि अष्टक, चार आयु, वसवीशक, गोत्रद्विक, वेदनीयद्विक और वर्णचतुष्क ये प्रकृतियाँ अघातिनी हैं । विशेषार्थ – इन दो गाथाओं में कर्म प्रकृतियों का घाति और अघाति की अपेक्षा वर्गीकरण किया गया है कि घाति प्रकृतियों की संख्या कितनी है और वे कौन-कौन हैं और अघाति प्रकृतियों की संख्या कितनी और उनमें कौन-कौन-सी प्रकृतियों को ग्रहण किया गया है । यद्यपि सामान्य तौर पर तो सभी कर्म संसार के कारण हैं और जब तक कर्म का लेशमात्र है तब तक आत्मा स्व-स्वरूप में अवस्थित नहीं कहलाती है । आत्मविकास की पूर्णता में कुछ न्यूनता बनी रहती है । लेकिन उनमें से कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो आत्मगुणों को अभिव्यक्ति को रोकते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो अभिव्यक्ति में व्यवधान नहीं डालकर संसार में बनाये रखते हैं । इसी दृष्टि से कर्मों के घाति और अघाति यह दो प्रकार माने जाते हैं । ज्ञानावरण आदि आठ मूल कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार घाती और वेदनीय, आयु, नाम, गोल ये चार अघाती हैं । घातिकर्म की उत्तर प्रकृतियां घातिनी और अघातिकर्म की उत्तर प्रकृतियां अघातिनी कहलाती हैं । जो प्रकृतियां आत्मा के मूलगुणों का घात करती हैं, वे घातिनी कहलाती हैं और जो उनका घात करने में असमर्थ हैं, वे अघातिनी हैं । घाति प्रकृतियों में भी दो प्रकार हैं-सर्वघातिनी, देशघातिनी । जो सर्वघातिनी हैं वे आत्मा के गुणों को पूरी तरह घातती हैं अर्थात् जिनके रहने पर यथार्थ रूप में आत्मिक गुण प्रकट नहीं हो पाते हैं और देशघातिनी प्रकृतियां यद्यपि आत्मगुणों की घातक अवश्य हैं लेकिन उनके अस्तित्व में भी अल्पाधिक रूप में आत्मगुणों का प्रकाशन www.jainelibrary.org Jain Education International ५३ For Private & Personal Use Only
SR No.001896
Book TitleKarmagrantha Part 5 Shatak
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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