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________________ ३८ कर्मग्रन्थभाग-१ सुरनरतिरिनरयाऊ हडिसरिसं नामकम्म चित्तिसमं । बायालतिनवइविहं तिउत्तरसयं च सत्तट्ठी ।।२३।। (सुरनरतिरिनरयाऊ) सुरायु, नरायु, तिर्यञ्चायु और नरकायु इस प्रकार आयु-कर्म के चार भेद हैं। आयु-कर्म का स्वभाव (हडिसरिसं) हडि-के समान है और (नाम कम्म) नाम कर्म (चित्तिसमं) चित्री-चित्रकार-चितेरे के समान है। वह नाम-कर्म (बायालतिनवइविहं) बयालीस प्रकार का, तिरानवे प्रकार का (च) और (तिउत्तर सयंसत्तट्ठी) एक सौ तीन प्रकार का है ।।२३।। भावार्थ-आयु-कर्म की उत्तर-प्रकृतियाँ चार हैं- १. देवायु, २. मनुष्यायु, ३. तिर्यञ्चायु और ४. नरकायु। कर्म का स्वभाव कारागृह (जेल) के समान है। जैसे, न्यायाधीश अपराधी को उसके अपराध के अनुसार अमुक काल तक जेल में डालता है और अपराधी चाहता भी है कि मैं जेल से निकल जाऊँ परन्तु अवधि पूर्ण हुये बिना नहीं निकल सकता; वैसे ही आयु-कर्म जब तक बना रहता है तब तक आत्मा स्थूल-शरीर को नहीं त्याग सकता, जब आयकर्म को पूरी तौर से भोग लेता है तभी वह शरीर को छोड़ता है। नारक जीव, नरक भूमि में इतने अधिक दुःखी रहते हैं कि, वे वहाँ जीने की अपेक्षा मरना ही पसन्द करते हैं; परन्तु आयु-कर्म के अस्तित्व से अधिक काल तक भोगने योग्य आयु-कर्म के बने रहने से उनकी मरने की इच्छा पूर्ण नहीं होती। उन देवों और मनुष्यों को-जिन्हें कि विषयभोग के साधन प्राप्त हैं, जीने की प्रबल इच्छा रहते हुये भी, आयु-कर्म के पूर्ण होते ही परलोक सिधारना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीता है और क्षय से मरता है उसे आयु कहते हैं। आयु कर्म दो प्रकार का है- एक अपवर्त्तनीय और दूसरा अनपवर्तनीय। अपवर्तनीय-बाह्यनिमित्तों से जो आयु कम हो जाती है, उस आयु को अपवर्तनीय अथवा अपवर्त्य आयु कहते हैं, तात्पर्य यह है कि जल में डूबने, आग में जलने, शस्त्र की चोट पहुँचने अथवा ज़हर खाने आदि बाह्य कारणों से शेष आयु को, जो कि पच्चीस पचास आदि वर्षों तक भोगने योग्य है, अन्तर्मुहूर्त में भोग लेना, यही आयु का अपवर्तन है, अर्थात् इस प्रकार की आयु को अपवर्त्य आयु कहते हैं, इसी आयु का दूसरा नाम जो कि दुनियाँ में प्रचलित है 'अकाल मृत्यु' है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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