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कर्मग्रन्थभाग- १
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चौथा कर्म मोहनीय है। उनका स्वभाव मद्य के समान है। जिस प्रकार मद्य के नशे में मनुष्य को अपने हित-अहित की पहचान नहीं रहती, उसी प्रकार मोहनीय-कर्म के उदय से आत्मा को अपने हित-अहित के पहचानने की बुद्धि नहीं होती। कदाचित् अपने हित-अहित की परीक्षा कर सके तो भी वह जीव, मोहनीय कर्म के प्रभाव से तदनुसार आचरण नहीं कर सकता।
मोहनीय के दो भेद हैं - १. दर्शनमोहनीय और २. चारित्रमोहनीय |
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१. दर्शनमोहनीय – जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना, यह दर्शन है— अर्थात् तत्त्वार्थ-श्रद्धा को दर्शन कहते हैं, यह आत्मा का गुण है, इसके घात करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कहते हैं ।
सामान्य उपयोग रूप दर्शन, इस दर्शन से जुदा है।
२. चारित्रमोहनीय – जिसके द्वारा आत्मा अपने असली स्वरूप को पाता है उसे चारित्र कहते हैं, यह भी आत्मा का गुण है; इसके घात करने वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं।
' दर्शनमोहनीय के तीन भेद'
दंसणमोहं तिविहं सम्म मीसं तहेव मिच्छत्तं । सुद्धं अद्धविसुद्धं अविसुद्धं तं हवइ कमसो ।। १४ । ।
(दंसणमोहं) दर्शनमोहनीयकर्म, (तिविहं) तीन प्रकार का है, ( सम्म) १. सम्यक्त्वमोहनीय, (मीसं) २. मिश्रमोहनीय ( तहेव ) उसी प्रकार (मिच्छत्तं ) ३. मिथ्यात्वमोहनीय, (तं) वह तीन प्रकार का कर्म, (कमसो) क्रमश: (सुद्धं ) शुद्ध, (अद्धविसुद्धं) अर्द्धविशुद्ध और (अविसुद्ध ) अविशुद्ध (हवइ ) होता है ॥ १४॥
भावार्थ - दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं- १. सम्यक्त्वमोहनीय, २. मिश्रमोहनीय और ३. मिथ्यात्वमोहनीय। सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक शुद्ध हैं, मिश्रमोहनीय के अर्धविशुद्ध और मिथ्यात्वमोहनीय के अशुद्ध ।
१. कोदो (कोद्रव) एक प्रकार का अन्न है जिसके खाने से नशा होता है । परन्तु उस अन्न का भूसा निकाला जाय और छाछ आदि से शोधा जाय तो, वह नशा नहीं करता उसी प्रकार जीव को, हित-अहित परीक्षा में विकल करने वाले मिथ्यात्वमोहनीय के पुद्गल हैं, उनमें सर्वघाती रस होता है । द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक रस, सर्वघाती हैं। जीव अपने विशुद्ध परिणाम के
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