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कर्मग्रन्थ भाग - १
बल से उन पुद्गलों के सर्वघाती रस को अर्थात् शक्ति को घटा देता है, सिर्फ एकस्थानक रस बच जाता है। इन एकस्थानक रस वाले मिथ्यात्वमोहनीय के पुद्गलों को ही सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं। यह कर्म शुद्ध होने के कारण, तत्त्वरुचि रूप सम्यक्त्व में बाधा नहीं पहुँचाता, परन्तु इसके उदय से आत्म स्वभाव रूप औपशमिकसम्यक्त्व तथा क्षायिकसम्यक्त्व होने नहीं पाता और सूक्ष्म पदार्थों के विचारने में शंकायें हुआ करती हैं, जिससे कि सम्यक्त्व में मलिनता आ जाती है, इसी दोष के कारण यह कर्म सम्यक्त्व मोहनीय कहलाता है।
२. कुछ भाग शुद्ध और कुछ भाग अशुद्ध ऐसे कोदौ के समान मिश्रमोहनीय है। इस कर्म के उदय से जीव को तत्त्वरुचि नहीं होने पाती और अतत्त्वरुचि भी नहीं होती । मिश्रमोहनीय का दूसरा नाम सम्यक् - मिथ्यात्वमोहनीय है, इन कर्मपुद्गलों में द्विस्थानकरस होता है।
३. सर्वथा अशुद्ध कोदौ के समान मिथ्यात्व मोहनीय है, इस कर्म के उदय से जीव को हित में अहितबुद्धि और अहित में हितबुद्धि होती है अर्थात् हित को अहित समझता है और अहित को हित। इन कर्म - पुद्गलों में चतु:स्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक रस होता है ।
१ / ४ को चतुः स्थानक, १ / ३ को त्रिस्थानक और १ / २ को द्विस्थानक रस कहते हैं जो रस सहज है अर्थात् स्वाभाविक है, उसे एक स्थानक कहते हैं।
इस विषय को समझने के लिये नीम का अथवा ईख का एक सेर रस लिया; इसे एक स्थानक रस कहेंगे; नीम के इस स्वाभाविक रस को कटु, और ईख के रस को मधुर कहना चाहिये । उक्त एक सेर रस को आग के द्वारा जलाकर आधा कर दिया, बचे हुए आधे रस को द्विस्थानक रस कहते हैं; यह रस, स्वाभाविक कटु और मधु रस की अपेक्षा, कटुकतर और मधुतर कहा जायगा । एक सेर रस के दो हिस्से जला दिये जायें तो बचे हुए एक हिस्से को त्रिस्थानक रस कहते हैं; यह रस नीम का हुआ तो कटुकतम और ईख का हुआ तो मधुरतम कहलायेगा। एक सेर रस के तीन हिस्से जला दिये जायें तो बचे हुए पाव भर को चतुः स्थानक कहते हैं, यह रस नीम का हुआ तो अतिकटुकतम और ईख का हुआ तो अतिमधुरतम कहा जायगा । इस प्रकार शुभ-अशुभ फल देने की कर्म की तीव्रतम शक्ति को चतुःस्थानक, तीव्रतर शक्ति को त्रिस्थानक, तीव्र शक्ति को द्विस्थानक और मन्दशक्ति को एकस्थानक रस समझना चाहिये ।
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