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कर्मग्रन्थभाग- १
अवबोध होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं, उसका आवरण केवलदर्शनावरण
कहलाता है।
विशेष – चक्षुर्दर्शनावरण कर्म के उदय से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवों को जन्म से ही आँखे नहीं होती । चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवों को आँखें उक्त कर्म के उदय से नष्ट हो जाती हैं अथवा रतौंधी आदि के हो जाने से उनसे कम दीख पड़ता है। इसी प्रकार शेष इन्द्रियों और मनवाले जीवों के विषय में भी उन इन्द्रियों का और मन का जन्म से ही न होना अथवा जन्म से होने पर भी कमजोर, अस्पष्ट होना, पहले के समान समझना चाहिये। जिस प्रकार अवधिदर्शन माना गया है, उसी प्रकार मनःपर्याय दर्शन क्यों नहीं माना गया, ऐसा सन्देह करना इसलिये ठीक नहीं कि मनः पर्यायज्ञान क्षयोपशम के प्रभाव से विशेष धर्मों को ही ग्रहण करते हुये उत्पन्न होता है सामान्य को नहीं । 'अब पाँच निद्राओं को कहेंगे, इस गाथा में आदि की चार निद्राओं का स्वरूप कहते हैं'
निद्दा निहानिहा य
सुहपडिबोहा दुक्खपडिबोहा । पयला ठिओवविट्ठस्य पयलपयला य चंकमओ ।। ११ । ।
(सुहपडिबोहा) जिसमें बिना परिश्रम के प्रतिबोध हो, वह (निद्दा) निद्रा; (य) और ( दुक्खपडिबोहा) जिसमें कष्ट से प्रतिबोध हो, वह (निद्दानिद्दा) निद्रानिद्रा; (ठिओवविट्ठस्स) स्थित और उपविष्ट को (पयला) प्रचला होती है; (चंकमओ) चंकमतः - अर्थात् चलने फिरने वाले को (पयलपयला) प्रचलाप्रचला होती है ॥ ११ ॥
भावार्थ - दर्शनावरणीय कर्म के नौ भेदों में से चार भेद पहले कह चुके हैं, अब पाँच भेदों को कहते हैं, उनके नाम ये हैं - १. निद्रा, २ . निद्रानिद्रा, ३. प्रचला, ४. प्रचलाप्रचला और ५. स्त्यानर्द्धि ।
१. निद्रा - जो सोया हुआ जीव, थोड़ी-सी आवाज से जागता है— अर्थात् जिसे जगाने में मेहनत नहीं पड़ती, उसकी नींद को निद्रा कहते हैं और जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आती है, उस कर्म का भी नाम 'निद्रा' है।
२. निद्रा - निद्रा - जो सोया हुआ जीव, बड़े जोर से चिल्लाने या हाथ से जोर से हिलाने पर बड़ी मुश्किल से जागता है, उसकी नींद को निद्रा निद्रा कहते हैं; जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आये, उस कर्म का भी नाम 'निद्रानिद्रा' है।
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