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कर्मग्रन्थभाग- १
आवरण कहा जाता है— अर्थात् मतिज्ञान का आवरण, मतिज्ञानावरण; श्रुतज्ञान का आवरण, श्रुतज्ञानावरण, इस प्रकार दूसरे आवरणों को भी समझना चाहिये । (दंसणावरणं) दर्शनावरण कर्म, (वित्तिसमं ) वेत्री - दरवान के सदृश है। उसके नव भेद हैं, सो इस प्रकार - ( दंसणचउ ) दर्शनावरण - चतुष्क और (पणनिद्दा) पाँच निद्राएँ ॥९॥
भावार्थ - ज्ञान के आवरण करने वाले कर्म को ज्ञानावरण अथवा ज्ञानावरणीय कहते हैं जिस प्रकार आँख पर कपड़े की पट्टी लपेटने से वस्तुओं के देखने में रुकावट होती है; उसी प्रकार ज्ञानावरण के प्रभाव से आत्मा को, पदार्थों के जानने में रुकावट पहुँचती है । परन्तु ऐसी रुकावट नहीं होती कि जिससे आत्मा को किसी प्रकार का ज्ञान ही न हो । चाहे जैसे घने बादलों से सूर्य घिर जाय तो भी उसका कुछ न कुछ प्रकाश - जिससे कि रात-दिन का भेद समझा जा सकता है; जरूर बना रहता है। इसी प्रकार कर्मों के चाहे जैसे गाढ़ आवरण क्यों न हों, आत्मा को कुछ न कुछ ज्ञान होता ही रहता है। आँख की पट्टी का जो दृष्टान्त दिया गया है उसका अभिप्राय यह है कि, पतले कपड़े की पट्टी होगी तो कुछ ही कम दिखेगा; गाढ़े कपड़े की पट्टी होगी तो बहुत कम दिखेगा; इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मों की आच्छादन करने की शक्ति अलग-अलग होती है।
१. मतिज्ञानावरणीय — भिन्न-भिन्न प्रकार के मतिज्ञानों के आवरण करने वाले भिन्न-भिन्न कर्मों को मतिज्ञानावरणीय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि, पहले मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद कहे गये और दूसरी अपेक्षा से तीन सौ चालीस भेद भी कहे गये। उन सबों के आवरण करने वाले कर्म भी भिन्न-भिन्न हैं, उनका 'मतिज्ञानावरण' इस एक शब्द से ग्रहण होता है। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए।
२. श्रुतज्ञानावरणीय - श्रुतज्ञान के चौदह अथवा बीस भेद कहे गये हैं, उनके आवरण करने वाले कर्मों को श्रुत ज्ञानावरणीय कहते हैं।
३. अवधिज्ञानावरणीय - पूर्वोक्त भिन्न-भिन्न प्रकार के अवधिज्ञानों के आवरण करने वाले कर्मों को अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं।
४. मनः पर्यायज्ञानावरणीय - मनः पर्यायज्ञान के आवरण करने वाले कर्मों को मन: पर्यायज्ञानावरणीय कहते हैं।
५. केवलज्ञानावरणीय - केवलज्ञान के आवरण करने वाले कर्मों को केवलज्ञानावरणीय कहते हैं। इन पाँचों ज्ञानावरणों में केवलज्ञानावरण कर्म
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