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कर्मग्रन्थभाग-१
अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा मन:पर्याय ज्ञान के चार भेद हैं।
(क) द्रव्य से ऋजुमति मनोवर्गणा के अनन्त प्रदेश वाले अनन्त स्कन्धों को देखता है और विपुलमति, ऋजुमति की अपेक्षा अधिक प्रदेशों वाले स्कन्धों को अधिक स्पष्टता से देखता है। ___(ख) क्षेत्र से, ऋजुमति तिरछी दिशा में ढाई द्वीप; ऊर्ध्व दिशा में (ऊपर) ज्योतिष्चक्र के ऊपर का तल और अधोदिशा में (नीचे) कुबड़ी उण्डोविजय तक के संज्ञीजीव के मनोगत भावों को देखता है। विपुलमति, ऋजुमति की अपेक्षा ढाई अंगुल अधिक तिरछे क्षेत्र के संज्ञी जीव के मनोगत भावों को देखता है।
(ग) काल से ऋजुमति पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने भूतकाल तथा भविष्यकाल के मनोगत भावों को देखता है। विपुलमति, ऋजुमति की अपेक्षा कुछ अधिक काल के, मन से चिन्तित या मन से जिनका चिन्तन होगा, ऐसे पदार्थों को देखता है।
(घ) भाव से, ऋजुमति मनोगत द्रव्य के असंख्यात पर्यायों को देखता है और विपुलमति ऋजुमति मनोगत द्रव्य के असंख्यात पर्यायों को देखता है और विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा कुछ अधिक पर्यायों को देखता है।
केवलज्ञान में किसी प्रकार का भेद नहीं है, सम्पूर्ण द्रव्य और उनके सम्पूर्ण पर्यायों को केवलज्ञानी एक ही समय में जान लेता है। अर्थात् भूत, भविष्यत्
और वर्तमान का कोई भी परिवर्तन उससे छिपा नहीं रहता। उसे निरावरण ज्ञान और क्षायिक ज्ञान भी कहते हैं।
मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान पंचमहाव्रती को होते हैं, अन्य को नहीं। माता मरुदेवी को केवलज्ञान हुआ, उससे पहले वह भाव से सर्वविरता थी।
इस तरह मतिज्ञान के २८, श्रुतज्ञान के १४ अथवा २०, अवधिज्ञान के ६, मन:पर्याय के २ तथा केवलज्ञान का १, इन सब भेदों को मिलाने से, पाँचों ज्ञानों के ५१ भेद होते हैं अथवा ५७ भेद भी होते हैं।
‘अब उनके आवरणों को कहते हैं' एसिं जं आवरणं पडुव्व चक्खुस्स तं तयावरणं । दंसणचउ पणनिद्दा वित्तिसमं दंसणावरणं ।।९।।
(चक्खुस्स) आँख के (पडुव्व) पट-पट्टी के समान, (एसिं) इन मति आदि पाँच ज्ञानों का (जं) जो (आवरणं) आवरण है, (तं) वह (तयावरणं) उनका
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