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________________ कर्मग्रन्थभाग-१ (क) द्रव्य-अवधिज्ञानी जघन्य से--अर्थात् कम से कम अनन्त रूपीद्रव्यों को जानते और देखते हैं। उत्कृष्ट से—अर्थात् अधिक से अधिक सम्पूर्ण रूपी द्रव्यों को जानते तथा देखते हैं। (ख) क्षेत्र-अवधिज्ञानी कम से कम अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने क्षेत्र के द्रव्यों को जानते तथा देखते हैं और अधिक से अधिक, अलोक में, लोक-प्रमाण असंख्य खण्डों को जान सकते तथा देख सकते हैं। अलोक में कोई पदार्थ नहीं है तथापि यह असत्कल्पना की जाती है कि अलोक में, लोकप्रमाण असंख्यात खण्ड, जितने क्षेत्र को घेर सकते हैं, उतने क्षेत्र के रूपी-द्रव्यों को जानने तथा देखने की शक्ति अवधिज्ञानी में होती है। अवधिज्ञान के सामर्थ्य को दिखलाने के लिए असत्कल्पना की गई है। (ग) काल-कम से कम, अवधिज्ञानी आवलिका के असंख्यातवें भाग जितने काल के रूपी द्रव्यों को जानता तथा देखता है और अधिक से अधिक, असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण, अतीत और अनागत काल के रूपी पदार्थो को जानता तथा देखता है। (घ) भाव-कम से कम, अवधिज्ञानी रूपीद्रव्य के अनन्त भावों कोपर्यायों को जानता तथा देखता है और अधिक से अधिक भी अनन्त भावों को जानता तथा देखता है। अनन्त के अनन्त भेद होते हैं, इसलिए जघन्य और उत्कृष्ट अनन्त में फर्क समझना चाहिए। उक्त अनन्त भाव, सम्पूर्ण भावों के अनन्तवें भाग जितना है। जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के मति तथा श्रुत को मतिअज्ञान तथा श्रुतअज्ञान कहते हैं, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के अवधि को विभंगज्ञान कहते हैं। मन: पर्यायज्ञान के दो भेद हैं—१. ऋजुमति और २. विपुलमति। १. ऋजुमति-दूसरे के मन में स्थित पदार्थ के सामान्य स्वरूप को जानना-अर्थात् इसने घड़े को लाने तथा रखने का विचार किया है, इत्यादि साधारणरूप से जानना, ऋजुमति ज्ञान कहलाता है। २. विपुलमति-दूसरे के मन में स्थित पदार्थ के अनेक पर्यायों का जानना-अर्थात् इसने जिस घड़े का विचार किया है वह अमुक धातु का है, अमुक जगह का बना हुआ है, अमुक रंग का है, इत्यादि विशेष अवस्थाओं के ज्ञान को विपुलमतिज्ञान कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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