SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मग्रन्थभाग-१ (अणुगामि) अनुगामि, (वठ्ठमाणय) वर्धमान, (पडिवाइ) प्रतिपाति तथा (इयरविहा) दूसरे प्रतिपक्षि-भेदों से (ओही) अवधिज्ञान, (छहा) छः प्रकार का है। (रिउमई) ऋजुमति और (विउलमई) विप्लमति यह दो, (मणनाणं) मन:पर्यवज्ञान हैं। (केवल मिगविहाणं) केवलज्ञान एक ही प्रकार का है अर्थात् उसके भेद नहीं हैं।।८॥ भावार्थ-अवधिज्ञान दो प्रकार का है-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। जो अवधिज्ञान जन्म से ही होता है उसे भवप्रत्यय कहते हैं और वह देवों तथा नारक जीवों को होता है। किन्हीं-किन्हीं मनुष्यों तथा तिर्यञ्चों को जो अवधिज्ञान होता है, वह गुण-प्रत्यय कहलाता है। तपस्या, ज्ञान की आराधना आदि कारणों से गुण-प्रत्यय अवधिज्ञान होता है। इस गाथा में गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छः भेद दिखलाये गये हैं, उनके नाम-- १. अनुगामी, २. अननुगामी, ३. वर्धमान, ४. हीयमान, ५. प्रतिपाति और ६. अप्रतिपाति। १. अनुगामी-एक जगह से दूसरी जगह जाने पर भी जो अवधिज्ञान, आँख के समान साथ ही रहे, उसे अनुगामी कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस जगह जिस जीव में यह ज्ञान प्रकट होता है, वह जीव उस जगह से, संख्यात या असंख्यात योजन के क्षेत्रों को चारों तरफ जैसे देखता है, उसी प्रकार दूसरी जगह जाने पर भी उतने ही क्षेत्रों को देखता है। २. अननुगामी–जो अनुगामी से उल्टा हो—अर्थात् जिस जगह अवधिज्ञान प्रकट हुआ हो, वहाँ से अन्यत्र जाने पर वह (ज्ञान) नहीं रहे। ३. वर्धमान—जो अवधिज्ञान, परिणाम विशुद्धि के साथ, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा को लिए दिन-दिन बढ़े उसे वर्धमान अवधि कहते हैं। ४. हीयमान-जो अवधिज्ञान परिणामों की अशुद्धि से दिन-दिन घटेकम होता जाय, उसे हीयमान अवधि कहते हैं। ५. प्रतिपाति-जो अवधिज्ञान, फूंक से दीपक के प्रकाश के समान एकाएक गायब हो जाय-चला जाय उसे प्रतिपाति अवधि कहते हैं। ६. अप्रतिपाति-जो अवधिज्ञान केवलज्ञान से अन्तर्मुहूर्त पहले प्रकट होता है और बाद में केवलज्ञान में समा जाता है उसे अप्रतिपाति अवधि कहते हैं। इसी अप्रतिपाति को परमावधि भी कहते हैं। अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अवधिज्ञान चार प्रकार के हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy