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________________ कर्मग्रन्थभाग-१ इह नाणदंसणावरणवेयमोहाउनामगोयाणि । विग्धं च पणनवदुअट्ठवीसचउतिसयदुपणविहं ।। ३।। (इह) इस शास्त्र में (नाणदंसणावरणवेयमोहाउनामगोयाणि) ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र (च) और (विग्घं) अन्तराय, ये आठ कर्म कहे जाते हैं। इनके क्रमश: (पणनवदुअट्ठवीसचउतिसयदुपणविहं) पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, एक सौ तीन, दो और पाँच भेद हैं ॥३॥ भावार्थ-आठ कर्मों के नाम ये हैं १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय। पहले कर्म के उत्तर-भेद पाँच, दसरे के नौ, तीसरे के दो, चौथे के अट्ठाईस, पाँचवे के चार, छटे के एक सौ तीन, सातवें के दो और आठवें के उत्तर-भेद पाँच हैं। इस प्रकार आठों कर्मों के उत्तरभेदों की संख्या एक सौ अट्ठावन १५८ होती है। चेतना आत्मा का गुण है, उसके (चेतना के) पर्याय को उपयोग कहते हैं। उपयोग के दो भेद हैं—ज्ञान और दर्शन। ज्ञान को साकार उपयोग कहते हैं और दर्शन को निराकार उपयोग। जो उपयोग पदार्थों के विशेष धर्मों काजाति, गुण, क्रिया आदि का ग्राहक है, वह ज्ञान कहा जाता है और जो उपयोग पदार्थों के सामान्यधर्म का-अर्थात् सत्ता का ग्राहक है, उसे दर्शन कहते हैं। १. ज्ञानावरणीय—जो कर्म, आत्मा के ज्ञानगुण को आच्छादित करेढक देवे, उसे ज्ञानावरणीय कहते हैं। २. दर्शनावरणीय-जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करे, वह दर्शनावरणीय कहलाता है। ३. वेदनीय-जो कर्म आत्मा को सुख-दुःख पहुँचावे, वह वेदनीय कहलाता है। ४. मोहनीय-जो कर्म स्व-पर-विवेक में तथा स्वरूपरमण में बाधा पहुँचाता है, वह मोहनीय कहलाता है। __ अथवा-जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व-गुण का और चारित्र गुण का घात करता है, उसे मोहनीय कहते हैं।, ५. आयु-जिस कर्म के अस्तित्व से (रहने से) प्राणी जीता है तथा क्षय होने से मरता है, उसे आयु कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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