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________________ कर्मग्रन्थभाग- १ ६. नाम - जिस कर्म के उदय से जीव नारक, तिर्यञ्च आदि नामों से सम्बोधित होता है- -अर्थात् अमुक जीव नारक है, अमुक तिर्यञ्च है, अमुक मनुष्य है, अमुक देव है, उसे नाम कहते हैं। ७. गोत्र – जो कर्म, आत्मा को उच्च तथा नीच कुल में जन्मावे उसे गोत्र कहते हैं । ८. अन्तराय - जो कर्म आत्मा के वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग रूप शक्तियों का घात करता है उसे अन्तराय कहते हैं । 'ज्ञानावरणीय की पाँच उत्तर - प्रकृतियों को कहने के लिये पहले ज्ञान के भेद दिखलाते हैं।' मइसुयओहीमणकेवलाणिनाणाणि तत्थ मइनाणं । मणनयणविणिदियचउक्का ।।४।। वंजणवग्गहचउहा (मइसुयओहीमणकेवलाणि) मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवल - ये पाँच (नामाणि) ज्ञान हैं। (तथ्य ) उनमें पहला ( मइनाणं) मतिज्ञान अट्ठाईस प्रकार का है, सो इस प्रकार – (मणनयणविणिदियचउक्का) मन और आँख के अतिरिक्त अन्य चार इन्द्रियों को लेकर (वंजणवग्गह) व्यञ्जनावग्रह (चउहा) चार प्रकार है। भावार्थ - अब आठ कर्मों की उत्तर - प्रकृतियाँ क्रमश: कही जायेंगी। प्रथम ज्ञानावरणीय कर्म है, उसकी उत्तर-प्र - प्रकृतियों को समझाने के लिये ज्ञान के भेद दिखाते हैं, क्योंकि ज्ञान के भेद समझ में आ जाने से, उनके आवरण सरलता से समझ में आ सकते हैं। ज्ञान के मुख्य भेद पाँच हैं, उनके नाम मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान और केवलज्ञान। इन पाँचों के हर एक के अवान्तर भेद - अर्थात् उत्तर-भेद हैं। मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद हैं। चार इस गाथा में कहे गये; बाकी के अगली गाथा में कहे जायेंगे। इस गाथा में कहे हुये चार भेदों के नाम यह हैं— स्पर्शनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, घ्राणेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, रसनेन्द्रिय व्यञ्जनाग्रह और श्रवणेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह । आँख और मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। कारण यह है कि आँख और मन ये दोनों पदार्थों से अलग रह कर ही उनको ग्रहण करते हैं; और व्यञ्जनावग्रह में तो इन्द्रियों का पदार्थों के साथ संयोग सम्बन्ध का होना आवश्यक है। आँख और मन 'अप्राप्यकारी' कहलाते हैं, और अन्य इन्द्रियाँ 'प्राप्यकारी' पदार्थों से बिना मिले ही उनको ग्रहण करने वाली इन्द्रियाँ अप्राप्यकारी हैं। तात्पर्य यह कि, जो इन्द्रियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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