SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मग्रन्थभाग- १ में कुछ लड्डुओं में मधुर रस अधिक, कुछ लड्डुओं में कम; कुछ लड्डुओं कटु रस अधिक, कुछ लड्डुओं में कम, इस तरह मधुर-कटु आदि रसों की न्यूनाधिकता देखी जाती है; उसी प्रकार कुछ कर्मदलों में शुभ रस अधिक, कुछ कर्मदलों में कम; कुछ कर्मदलों में अशुभ रस अधिक, कुछ कर्मदलों में कम, इस तरह विविध प्रकार के अर्थात् तीव्र - तीव्रतर - तीव्रतम, मन्द-मन्दतरमन्दतम शुभ - अशुभ रसों का कर्म- पुद्गलों में बन्धना अर्थात् उत्पन्न होना, रसबन्ध कहलाता है। शुभ कर्मों का रस, ईख द्राक्षादि के रस के सदृश मधुर होता है जिसके अनुभव से जीव खुश होता है। अशुभ कर्मों का रस, नीम आदि के रस के सदृश कडुवा होता है, जिसके अनुभव से जीव बुरी तरह घबरा उठता है। तीव्र, तीव्रतर आदि को समझने के लिये दृष्टान्त के तौर पर ईख या नींम का चारचार सेर रस लिया जाय। इस रस को स्वाभाविक रस कहना चाहिये। आँच के द्वारा जलाकर चार सेर की जगह तीन सेर बच जाय तो उसे तीव्र कहना चाहिये; और जलाने के पश्चात् से दो सेर बच जाय तो तीव्रतर कहना चाहिए और जब एक सेर बच जाय तो तीव्रतम कहना चाहिए । ईख या नीम का एक सेर स्वाभाविक रस लिया जाय उसमें एक सेर पानी के मिलाने से मन्द रस बन जायगा, दो सेर पानी के मिलाने से मन्दतर रस बनेगा, तीर सेर पानी के मिलाने से मन्दतम रस बनेगा। कुछ लड्डुओं का परिमाण दो तोले का, कुछ लड्डुओं का छटांक का और कुछ लड्डुओं का परिमाण पाव भर का होता है । उसी प्रकार कुछ कर्मदलों में परमाणुओं की संख्या अधिक और कुछ कर्मदलों में कम। इस तरह भिन्नभिन्न प्रकार की परमाणु संख्याओं से युक्त कर्मदलों का आत्मा से सम्बन्ध होना, प्रदेशबंध कहलाता है। संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त परमाणुओं से बने हुये स्कन्ध को जीव ग्रहण नहीं करता, किन्तु अनन्तानन्त परमाणुओं से बने हुये स्कन्ध को ग्रहण करता है। मूलप्रकृति - कर्मों के मुख्य भेदों को मूलप्रकृति कहते हैं । उत्तरप्रकृति - कर्मों के अवान्तर भेदों को उत्तरप्रकृति कहते हैं। 'कर्म की मूलप्रकृतिओं के नाम और हर एक मूलप्रकृति के अवान्तर भेदों की- अभेदों की संख्या ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy