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________________ प्रस्तावना xxiii है वह यों ही बिना कारण भोगता है-यह मानना तो अज्ञान की पराकाष्ठा है, क्योंकि बिना कारण किसी कार्य का होना असम्भव है। यदि यह कहा जाय कि माता-पिता के आहार-विहार का, विचार-व्यवहार का और शारीरिक-मानसिक अवस्थाओं का असर बालक पर गर्भावस्था से ही पड़ना शुरू होता है तो फिर भी सामने यह प्रश्न होता है कि बालक को ऐसे माता-पिता का संयोग क्यों हुआ? और इसका क्या समाधान है कि कभी-कभी बालक की योग्यता मातापिता से बिल्कुल ही जुदा प्रकार की होती है। ऐसे अनेक उदाहरण देखे जाते हैं कि माता-पिता बिल्कुल अनपढ़ होते हैं और लड़का पूरा शिक्षित बन जाता है। विशेष क्या? यहाँ तक देखा जाता है कि किन्हीं-किन्हीं माता-पिताओं की रुचि, जिस बात पर बिल्कुल ही नहीं होती उसमें बालक सिद्धहस्त हो जाता है। इसका कारण केवल आस-पास की परिस्थिति ही नहीं मानी जा सकती, क्योंकि समान परिस्थिति और बराबर देखभाल होते हुये भी अनेक विद्यार्थियों में विचार व व्यवहार की भिन्नता देखी जाती है। यदि कहा जाय कि यह परिणाम बालक के अद्भुत ज्ञानतंतुओं का है, तो इस पर यह शंका होती है कि बालक का देह माता-पिता के शुक्रशोणित से बना होता है, फिर उनमें अविद्यमान ऐसे ज्ञानतन्तु बालक के मस्तिष्क में आये कहाँ से? कहीं-कहीं माता-पिता की-सी ज्ञानशक्ति बालक में देखी जाती है सही, पर इसमें भी प्रश्न है कि ऐसा सयोग क्यों मिला? किसी-किसी जगह यह भी देखा जाता है कि माता-पिता की योग्यता बहुत बढ़ी-चढ़ी होती है और उनके सौ प्रयत्न करने पर भी लड़का गँवार ही रह जाता है। ___यह सबको विदित ही है कि एक साथ-युगलरूप से-जन्मे हुये दो बालक भी समान नहीं होते। माता-पिता की देखभाल बराबर होने पर भी एक साधारण ही रहता है और दूसरा कहीं आगे बढ़ जाता है। एक का पिण्ड रोग से नहीं छूटता और दूसरा बड़े-बड़े कुश्तिबाजों से हाथ मिलाता है। एक दीर्घजीवी बनता है और दूसरा सौ यत्न होते रहने पर भी यम का अतिथि बन जाता है। एक ही इच्छा संयत होती है और दूसरे की असंयत। जो शक्ति, महावीर में, बुद्ध में, शङ्कराचार्य में थी वह उनके माता-पिताओं में न थी। हेमचन्द्राचार्य की प्रतिभा के कारण उनके माता-पिता नहीं माने जा सकते। उनके गुरु भी उनकी प्रतिभा के मुख्य कारण नहीं, क्योंकि देवचन्द्रसूरि के हेमचन्द्राचार्य के अतिरिक्त और भी शिष्य थे, फिर क्या कारण है कि दूसरे शिष्यों का नाम लोग जानते तक नहीं और हेमचन्द्राचार्य का नाम इतना प्रसिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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