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________________ xxii कर्मग्रन्थभाग- १ जीवन पवित्रतापूर्वक आत्मा के विचार में ही बिताया। उनके शुद्ध अनुभव को हम यदि अपने भ्रान्त अनुभव के बल पर न मानें तो इसमें न्यूनता हमारी ही है। पुरातनशास्त्र और वर्तमान अनुभवी महात्मा निःस्वार्थ भाव से आत्मा के अस्तित्व को बतला रहे हैं। (च) आधुनिक वैज्ञानिकों की सम्मति - आजकल लोग प्रत्येक विषय का खुलासा करने के लिये बहुधा वैज्ञानिक विद्वानों का विचार जानना चाहते हैं । यह ठीक है कि अनेक पश्चिमीय भौतिक विज्ञान विशारद आत्मा को नहीं मानते या उसके विषय में संदिग्ध हैं। परन्तु ऐसे भी अनेक धुरन्धर वैज्ञानिक हैं कि जिन्होंने अपनी सारी वायु भौतिक खोज में बिताई है, पर उनकी दृष्टि भूतों से परे आत्मतत्त्व की ओर भी पहुँची है। उन में से सर ऑलीवर लॉज और लॉर्ड केलविन, इनका नाम वैज्ञानिक संसार में मशहूर है। ये दोनों विद्वान् चेतन तत्त्व को जड़ से जुदा मानने के पक्ष में हैं। उन्होंने जड़वादियों की युक्तियों का खण्डन बड़ी सावधानी से व विचारसारणी से किया है। उनका मन्तव्य है कि चेतन के स्वतन्त्र अस्तित्व के अतिरिक्त जीवधारियों के देह की विलक्षण रचना किसी तरह बन नहीं सकती। वे अन्य भौतिकवादियों की तरह मस्तिष्क को ज्ञान की जड़ नहीं समझते, किन्तु उसे ज्ञान के आविर्भाव का साधन मात्र समझते हैं । १ डॉ. जगदीशचन्द्र बोस, जिन्होंने सारे वैज्ञानिक संसार में नाम पाया है, उनकी खोज से यहाँ तक निश्चय हो गया है कि वनस्पतियों में भी स्मरण शक्ति विद्यमान है। बोस महाशय ने अपने आविष्कारों से स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व मानने के लिये वैज्ञानिक संसार को मजबूर किया है। (छ) पुनर्जन्म - नीचे अनेक प्रश्न ऐसे हैं कि जिनका पूरा समाधान पुनर्जन्म को स्वीकार किये बिना नहीं होता। गर्भ के आरम्भ से लेकर जन्म तक बालक को जो-जो कष्ट भोगने पड़ते हैं वे सब उस बालक के कृति के परिणाम हैं या उसके माता-पिता की कृति के ? उन्हें बालक की इस जन्म की कृति का परिणाम नहीं कह सकते, क्योंकि उसने गर्भावस्था में तो अच्छा-बुरा कुछ भी काम नहीं किया है। यदि माता-पिता की कृति का परिणाम कहें तो भी असंगत जान पड़ता है, क्योंकि माता-पिता अच्छा या बुरा कुछ भी करें उसका परिणाम बिना कारण बालक को क्यों भोगना पड़े? बालक जो कुछ सुख-दुःख भोगता १. इन दोनों चैतन्यवादियों के विचार को छाया, संवत् १९६१ के ज्येष्ठ मास के, १९६२ मार्गशीर्ष मास के और १९६५ के भाद्रपद मास के 'वसन्त पत्र में प्रकाशित हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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