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________________ xxiv कर्मग्रन्थभाग-१ है? श्रीमती एनी बिसेन्ट में जो विशिष्ट शक्ति देखी जाती है वह उनके मातापिता में न थी और न उनकी पुत्री में भी। अच्छा, और भी कुछ प्रामाणिक उदाहरणों को सुनिये। प्रकाश की खोज करने वाले डॉ. यंग दो वर्ष की उम्र में पुस्तक को बहुत अच्छी तरह बाँच सकते थे। चार वर्ष की उम्र में वे दो दफ़े बाइबल पढ़ चुके थे। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने गणितशास्त्र पढ़ना आरम्भ किया था और तेरह वर्ष की अवस्था में लेटिन, ग्रीक, हिब्रु, फ्रेंच, इटालियन आदि भाषाएँ सीख ली थीं। सर विलियन रोवन हेमिल्ट, इन्होंने तीन वर्ष की उम्र में हिब्रु भाषा सीखना आरम्भ किया और सात वर्ष की उम्र में उस भाषा में इतना नैपुण्य प्राप्त किया कि डब्लीन की ट्रीनिटी कॉलेज के एक फेलो को स्वीकार करना पड़ा कि कॉलेज के फेलो के पद के प्रार्थियों में भी उनके बराबर ज्ञान नहीं है और तेरह वर्ष की वय में तो उन्होंने कम से कम तेरह भाषा पर अधिकार जमा लिया था। ई.सं. १८९२ में जन्मी हुई एक लड़की ई.सं. १९०२ मेंदस वर्ष की अवस्था में एक नाटकमण्डल में सम्मिलित हुई थी। उसने उस अवस्था में कई नाटक लिखे थे। उसकी माता के कथनानुसार वह पाँच वर्ष की वय में कई छोटी-मोटी कविताएँ बना लेती थी। उसकी लिखी हुई कुछ कविताएँ महारानी विक्टोरिया के पास थीं। उस समय उस बालिका का अंग्रेजी ज्ञान भी आश्चर्यजनक था, वह कहती थी कि मैं अंग्रेजी पढ़ी नहीं हूँ, परन्तु उसे जानती हूँ। उक्त उदाहरणों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि इस जन्म में देखी जाने वाली सब विलक्षणताएँ न तो वर्तमान जन्म की कृति का ही परिणाम है, न माता-पिता के केवल संस्कार का ही; और न केवल परिस्थिति का ही। इसलिये आत्मा के अस्तित्व की मर्यादा को गर्भ के आरम्भ समय से और भी पूर्व मानना चाहिये। यही पूर्वजन्म है। पूर्वजन्म में इच्छा या प्रवृत्ति द्वारा जो संस्कार संचित हुये हों उन्हीं के आधार पर उपर्युक्त शङ्काओं का तथा विलक्षणताओं का सुसंगत समाधान हो जाता है। जिस युक्ति से एक पूर्वजन्म सिद्ध हुआ उसी के बल से अनेक पूर्वजन्म की परम्परा सिद्ध हो जाती है। क्योंकि अपरिमित ज्ञानशक्ति एक जन्म के अभ्यास का फल नहीं हो सकती। इस प्रकार आत्मा, देह से जुदा अनादि सिद्ध होता है। अनादि तत्त्व का कभी नाश नहीं होता इस सिद्धान्त को सभी दार्शनिक मानते हैं। गीता में भी कहा है'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।' -अ. २, श्लो. १६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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