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________________ XX कर्मग्रन्थभाग-१ इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञा वायुनविमिवाम्भसि।। इसलिये चंचल मन में आत्मा को स्फुरणा भी नहीं होती। यह देखी हुई बात है कि प्रतिबिम्ब ग्रहण करने की शक्ति, जिस दर्पण में वर्तमान है वह भी जब मलिन हो जाता है तब उसमें किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब व्यक्त नहीं होता। इससे यह बात सिद्ध है कि बाहरी विषयों में दौड़ लगाने वाले अस्थिर मन से आत्मा का ग्रहण न होना उसका बाध नहीं, किन्तु मन की अशक्ति मात्र है। इस प्रकार विचार करने से यह प्रमाणित होता है कि मन, इन्द्रियाँ, सूक्ष्मदर्शकयन्त्र आदि सभी साधन भौतिक होने से आत्मा का निषेध करने की शक्ति नहीं रखते। (ग) निषेध से निषेधकर्ता की सिद्धि-कुछ लोग यह कहते हैं कि 'हमें आत्मा का निश्चय नहीं होता, बल्कि कभी-कभी उसके अभाव की स्फरणा हो आती है; क्योंकि किसी समय मन में ऐसी कल्पना होने लगती है कि 'मैं नहीं हँ' इत्यादि।' परन्तु उनको जानना चाहिये कि उनकी यह कल्पना ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करती है। क्योंकि यदि आत्मा ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव कैसे? जो निषेध कर रहा है वह स्वयं ही आत्मा है। इस बात को श्रीशंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में भी कहा है'य एव ही निराकर्ता तदेव ही तस्य स्वरूपम्।' ___-अ. २, पा. ३, अ. १, सू. ७/ (घ) तर्क-यह भी आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की पुष्टि करता है। वह कहता है कि जगत् में सभी पदार्थों का विरोधी कोई न कोई देखा जाता है। अन्धकार का विरोधी प्रकाश। उष्णता का विरोधी शैत्य। सुख का विरोधी द:ख। इसी तरह जड़ पदार्थ का विरोधी भी कोई तत्त्व होना चाहिये। जो तत्त्व जड़ का विरोधी है वही चेतन या आत्मा है। १. यह तर्क निर्मूल या अप्रमाण नहीं, बल्कि इस प्रकार का तर्क शुद्ध (बुद्धि का चिह्न है।) भगवान् बुद्ध को भी अपने पूर्वजन्म में-अर्थात् सुमेध नामक ब्राह्मण के जन्म में ऐसा ही तर्क हुआ था। यथा--- 'यथा हि' लोके दुक्खस्स पटिपक्खभूतं सुखं नाम अत्थि, एवं भवे सति तप्पटिपक्खेन विभवेनाऽपि भवितब्बं यथा च उण्हे सति तस्स बूपसमभूतं सीतंऽपि अत्थि, एवं रागादीनं अग्गीनं वूपसमेन निब्बानेनाऽपि भवितब्ब।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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