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प्रस्तावना
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का स्वतन्त्र अस्तित्व नीचे लिखे सात प्रमाणों से जाना जा सकता है
(क) स्वसंवेदनरूप साधक प्रमाण, (ख) बाधक प्रमाण का अभाव, (ग) निषेध से निषेध-कर्ता की सिद्धि, (घ) तर्क, (ङ) शास्त्र व महात्माओं का प्रामाण्य, (च) आधुनिक विद्वानों को सम्मति और (छ) पुनर्जन्म।
(क) स्वसंवेदनरूप साधक प्रमाण-यद्यपि सभी देहधारी अज्ञान के आवरण से न्यूनाधिक रूप में घिरे हुए हैं और इससे वे अपने ही अस्तित्व का संदेह करते हैं, तथापि जिस समय उनकी बुद्धि थोड़ी-सी भी स्थिर हो जाती है उस समय उनको यह स्फूरणा होती है कि 'मैं हैं। यह स्फरणा कभी नहीं होती कि 'मैं नहीं हूँ'। इससे उलटा यह भी निश्चय होता है कि 'मैं नहीं हूँ' यह बात नहीं। इसी बात को श्री शंकराचार्य ने भी कहा है'सर्वो ह्यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति, न नाहमस्मीति' ।
___ -ब्रह्म. भाष्य १.१.१। इसी निश्चय को स्वसंवेदन (आत्मनिश्चय) कहते हैं।
(ख) बाधक प्रमाण का अभाव-ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो आत्मा के अस्तित्व का बाध (निषेध) करता हो। इस पर यद्यपि यह शंका हो सकती है कि मन और इन्द्रियों के द्वारा आत्मा का ग्रहण न होना ही उसका बाध है। परन्तु इसका समाधान सहज है। किसी विषय का बाधक प्रमाण वही माना जाता है जो उस विषय को जानने की शक्ति रखता हो और अन्य सब सामग्री मौजूद होने पर उसे ग्रहण कर न सके। उदाहरणार्थ-आँख, मिट्टी के घड़े को देख सकती है पर जिस समय प्रकाश, समीपता आदि सामग्री रहने पर भी वह मिट्टी के घड़े को न देखे, उस समय उसे उस विषय का बाधक समझना चाहिये।
इन्द्रियाँ सभी भौतिक हैं। उनकी ग्रहणशक्ति बहुत परिमित हैं। वे भौतिक पदार्थों में से भी स्थूल, निकटवर्ती और नियत विषयों को ही ऊपर-ऊपर से जान सकती हैं। सूक्ष्म-दर्शन यन्त्र आदि साधनों की वही दशा है। वे अभी तक भौतिक प्रदेश में ही कार्यकारी सिद्ध हुये हैं। इसलिये उनका अभौतिकअमूर्त-आत्मा को जान न सकना बाध नहीं कहा सकता। मन, भौतिक होने पर भी इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक सामर्थ्यवान् है सही, पर जब वह इन्द्रियों का दास बन जाता है-एक के पीछे एक, इस तरह अनेक विषयों में बन्दर के समान दौड़ लगाता फिरता है तब उसमें राजस व तामस वृत्तियाँ पैदा होती हैं। सात्विक भाव प्रकट होने नहीं पाता। यही बात गीता (अ. २ श्लो. ६७) में भी कही हुई है
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