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________________ कर्मग्रन्थभाग-२ है-उदय-समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त के जितने समय होते हैं, उनमें से उदयावलिका के समयों को छोड़कर शेष जितने समय रहते हैं इनमें से प्रथम समय में जो दलिक स्थापित किये जाते हैं वे कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित किये जानेवाले दलिक प्रथम समय में स्थापितदलिकों से असंख्यात-गुण-अधिक होते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के चरमसमयपर्यन्त पर समय में स्थापित किये जानेवाले दलिक, पूर्व-पूर्व समय में स्थापित किये गये दलिकों से असंख्यात-गुण ही. समझने चाहिये। जिन शुभ-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध अभी हो रहा है उनमें पहले बाँधी हुई अशुभ-प्रकृतियों का संक्रमण कर देना अर्थात् पहले बाँधी हुई अशुभप्रकृतियों को वर्तमान बन्धवाली शुभ-प्रकृतियों के रूप में परिणत करना 'गुण-संक्रमण' कहलाता है। गुण-संक्रमण का क्रम संक्षेप में इस प्रकार है-प्रथम समय में अशुभप्रकृति के जितने दलिकों का शुभ-प्रकृति में संक्रमण होता है, उनकी अपेक्षा दूसरे समय में असंख्यात-गुण-अधिक दलिकों का संक्रमण होता है। इस प्रकार जब तक गुण-संक्रमण होता रहता है तब तक पूर्व-पूर्व समय में संक्रमण किये गये दलिकों से उत्तर समय में असंख्यात-गुण अधिक दलिकों का ही संक्रमण होता है। ५. पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्प-स्थिति के कर्मों को बाँधना 'अपूर्वस्थितिबन्ध' कहलाता है। ये स्थितिघात-आदि पाँच पदार्थ, यद्यपि पहले के गुण स्थानों में भी होते हैं, तथापि आठवें गुणस्थान में वे अपूर्व ही होते हैं। क्योंकि पहले के गुणस्थानों में अध्यवसायों की जितनी शुद्धि होती है उसकी अपेक्षा आठवें गुणस्थान में अध्यवसायों की शुद्धि अत्यन्त अधिक होती है। अतएव पहले के गुणस्थानों में बहुत कम स्थिति का और अति अल्प रस का घात होता है। परन्तु आठवें गुणस्थान में अधिक स्थिति का तथा अधिक-रस का घात होता है। इसी तरह पहले के गुणस्थानों में गुणश्रेणि की काल-मर्यादा अधिक होती है तथा जिन दलिकों की गुणश्रेणि (रचना या स्थापना) की जाती है वे दलिक भी अल्प ही होते हैं, और आठवें गुणस्थान में गुणश्रेणि-योग्य-दलिक तो बहुत अधिक होते हैं, परन्तु गुणश्रेणि का काल-मान बहुत कम होता है। पहले गुणस्थानों की अपेक्षा आठवें गणस्थान में गुणसंक्रमण भी बहुत कर्मों का होता है, अतएव वह अपूर्व होता है। और आठवें गुणस्थान में इतनी अल्प-स्थिति के कर्म बाँधे जाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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