SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मग्रन्थभाग-२ शुद्धिवाले होने से अलग-अलग नहीं माने जाते। प्रत्येक समय के असंख्यात अध्यवसायों में से जो अध्यवसाय कम शुद्धिवाले होते हैं, वे जघन्य तथा जो अध्यवसाय अन्य सब अध्यवसायों की अपेक्षा अधिक शुद्धिवाले होते हैं, वे उत्कृष्ट कहलाते हैं। इस प्रकार एक वर्ग जघन्य अध्यवसायों का होता है। इन दो वर्गों के बीच में असंख्यात वर्ग हैं, जिनके सब अध्यवसाय मध्यम कहलाते हैं। प्रथम वर्ग के जघन्य अध्यवसायों की शुद्धि की अपेक्षा अन्तिम वर्ग के उत्कृष्ट अध्यवसायों की शुद्धि अनन्त-गुण-अधिक मानी जाती है और बीच के सब वर्गों में से पूर्व-पूर्व-वर्ग के अध्यवसायों की अपेक्षा पर-वर्ग के अध्यवसाय, विशेषशुद्ध माने जाते हैं। सामान्यतः इस प्रकार माना जाता है कि सम-समयवर्ती अध्यवसाय एक-दूसरे से अनन्त-भाग-अधिक-शुद्ध, असंख्यात-भाग-अधिकशुद्ध, संख्यात-भाग-अधिक शुद्ध, संख्यात-गुण-अधिक-शुद्ध, असंख्यात-गुणअधिक-शुद्ध और अनन्त-गुण-अधिक -शुद्ध होते हैं। इस तरह की अधिकशुद्धि के पूर्वोक्त अनन्त-भाग-अधिक आदि छ: प्रकारों को शास्त्र में 'षट्स्थान' कहते हैं। प्रथम समय के अध्यवसायों की अपेक्षा दूसरे समय के अध्यवसाय भिन्न ही होते हैं, और प्रथम समय के उत्कृष्ट अध्यवसायों से दूसरे समय के जघन्य अध्यवसाय भी अनन्त-गुण-विशुद्ध होते हैं। इस प्रकार अन्तिम समय तक पूर्व-पूर्व समय के अध्यवसायों से पर समय के अध्यवसाय भिन्न-भिन्न समझने चाहिये तथा पूर्व-पूर्व समय के उत्कृष्ट-अध्यवसायों की अपेक्षा पर-पर समय के जघन्य अध्यवसाय भी अनन्त-गुण-विशुद्ध समझने चाहिये। ___ इस आठवें गुणस्थान के समय जीव पाँच वस्तुओं का विधान करता है। जैसे- १. स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुणश्रेणि, ४. गुणसंक्रमण और ५. अपूर्व स्थितिबंध। १. जो कर्म-दलिक उदय में आनेवाले हैं, उन्हें अपवर्तना-करण के द्वारा अपने-अपने उदय के नियत समयों से हटा देना-अर्थात् ज्ञानावरण आदि कर्मों की बड़ी स्थिति को अपवर्तना-करण से घटा देना इसे 'स्थितिघात' कहते हैं। २. बँधे हुये ज्ञानावरणादि-कर्मों के प्रचुर रस (फल देने की तीव्र शक्ति) को अपवर्तना-करण के द्वारा मन्द कर देना यही 'रसघात' कहलाता है। ३. जिन कर्म-दलिकों का स्थितिघात किया जाता है अर्थात् जो कर्मदलिक अपने-अपने उदय के नियत-समयों से हटाये जाते हैं, उनको प्रथम के अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना 'गुणश्रेणि' है। स्थापन का क्रम इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy