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________________ कर्मग्रन्थभाग-२ कि जितनी अल्प-स्थिति के कर्म पहले के गुणस्थानों में कदापि नहीं बँधते। इस प्रकार उक्त स्थितिघात आदि पदार्थों का अपूर्व विधान होने से इस आठवें गुणस्थान का दूसरा नाम 'अपूर्वकरण' गुणस्थान यह भी शास्त्र में प्रसिद्ध है। जैसे राज्य को पाने की योग्यतामात्र से भी राजकुमार राजा कहलाता है, वैसे ही आठवें गुणस्थान में वर्तमान जीव, चारित्र-मोहनीय-कर्म के उपशमन या क्षपण के योग्य होने से उपशमक या क्षपक कहलाते हैं। क्योंकि चारित्र-मोहनीयकर्म के उपशमन या क्षपण का प्रारम्भ नौवें गुणस्थान में ही होता है, आठवें गुणस्थान में तो उसके उपशमन या क्षपण के प्रारम्भ की योग्यतामात्र होती है।।८।। अनिवृत्तिबादर सम्पराय गुणस्थान इस गुणस्थान की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। एक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं उतने ही अध्यवसाय-स्थान, इस नौवें गुणस्थानक में माने जाते हैं, क्योंकि नौवें गुणस्थानक में जो जीव सम-समयवर्ती होते हैं उन सब के अध्यवसाय एक से अर्थात् तुल्य-शुद्धिवाले होते हैं। जैसे प्रथम-समयवर्ती त्रैकालिक अनन्तजीवों के भी अध्यवसाय समान ही होते हैं इस प्रकार दूसरे समय से लेकर नौवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक तुल्य समय में वर्तमान त्रैकालिक जीवों के अध्यवसाय भी तुल्य ही होते हैं, और तुल्य अध्यवसायों को एक ही अध्यवसाय-स्थान मान लिया जाता है। इस बात को समझने की सरल रीति यह भी है कि नौवें गुणस्थान के अध्यवसायों के उतने ही वर्ग हो सकते हैं जितने कि उस गुणस्थान के समय हैं। एक-एक वर्ग में चाहे त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों की अनन्त अभिव्यक्तियाँ शामिल हों, परन्तु प्रतिवर्ग अध्यवसाय-स्थान एक ही माना जाता है; क्योंकि एक वर्ग के सभी अध्यवसाय, शुद्धि में बराबर ही होते हैं, परन्तु प्रथम समय के अध्यवसाय-स्थान से अर्थात् प्रथम-वर्गीय अध्यवसायों से-दूसरे समय के अध्यवसाय-स्थान-अर्थात् दूसरे वर्ग के अध्यवसाय--अनन्त-गुण-विशुद्ध होते हैं। इस प्रकार नौवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक पूर्व-पूर्व समय के अध्यवसाय-स्थान के उत्तर-उत्तर समय के अध्यवसाय-स्थान को अनन्त-गुण-विशुद्ध समझना चाहिये। आठवें गुणस्थानक से नौवें गुणस्थानक में यही विशेषता है कि आठवें गुणस्थानक में तो समान-समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसाय, शुद्धि के तरतमभाव से असंख्यात वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं, परन्तु नौवें गुणस्थान में समसमयवर्ती त्रैकालिक अनन्त-जीवों के अध्यवसायों का समान शुद्धि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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