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कर्मग्रन्थभाग-१
तिर्यञ्च की आयु के तथा मनुष्य की आयु के बन्ध-हेतु तिरियाउ गूढहियओ सढो ससल्लो तहा मणुस्साउ । पयईई तणुकसाओ दाणरुई मज्झिमगुणो अ।।५८।। __ (गूढ़हियओ) गूढ़हृदयवाला—अर्थात् जिसके दिल की बात कोई न जान सके ऐसा, (सढो) शठ-जिसकी जबान मीठी हो पर दिल में ज़हर भरा हो ऐसा, (ससल्लो) सशल्य-अर्थात् महत्त्व कम हो जाने के भय से प्रथम किये हुए पाप कर्मों की आलोचना न करनेवाला ऐसा जीव (तिरियाउ) तिर्यंच की आयु बाँधता है, (तहा) उसी प्रकार (पयईइ) प्रकृति से-स्वभाव से ही (तणुकसाओ) तनुअर्थात् अल्पकषायवाला, (दाणरुइ) दान देने में जिसकी रुचि है ऐसा (अ) और (मज्झिमगुणो) मध्यमगुणोंवाला-अर्थात् मनुष्यायु-बन्ध के योग्य क्षमा, मृदुता आदि गुणों वाला जीव (मणुस्साउ) मनुष्य की आयु को बाँधता है; क्योंकि अधमगुणोंवाला नरकायु को और उत्तमगुणोंवाला देवायु को बाँधता है इसलिये मध्यगुणों वाला कहा गया ।।५।। _ 'इस गाथा में देवायु, शुभनाम और अशुभनाम के बन्ध हेतुओं को कहते हैं?
अविरयमाइ सुराउं बालतवोऽकामनिज्जरो जयइ । सरलो अगारविल्लो सुहनामं अन्नहा असुहं ।। ५९।।
(अविरयमाइ) अविरत आदि, (बालतवोऽकामनिज्जरो) बालतपस्वी तथा अकामनिर्जरा करनेवाला जीव (सुराउं) देवायु का (जयइ) उपार्जन करता है। (सरलो) निष्कपट और (अगारविल्लो) गौरव-रहित जीव (सुहन्नाम) शुभनाम को बाँधता है (अनहा) अन्यथा-विपरीत-कपटी और गौरववाला जीव अशुभनाम को बाँधता है ।।५९॥
भावार्थ-जो जीव देवायु को बाँधते हैं१. अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य अथवा तिर्यंच, देशविरत अर्थात् श्रावक और
सराग-संयमी साधु। २. बाल-तपस्वी अर्थात् आत्म-स्वरूप को न जानकर अज्ञानपूर्वक
कायक्लेश आदि तप करने वाला मिथ्यादृष्टि। अकामनिर्जरा-अर्थात् इच्छा के न होते हुए भी जिसके कर्म की निर्जरा हुई है ऐसा जीव। तात्पर्य यह है कि अज्ञान से भूख, प्यास, ठंडी, गरमी को सहन करना; स्त्री की अप्राप्ति से शील को धारण करना इत्यादि
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