SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयोऽङ्कः कलहंसः- इदं वचो यथा देवि! किमर्थमत्यर्थमायास्यते पुनः पुनरवलोकनेन दृष्टिः? सर्वथाऽनुहरत्येवैषा प्रतिकृतिर्देवीवपुषः। राजा- साधु कपिञ्जले! भावज्ञानकुशले! साधु, ततस्ततः। कलहंस:- अत्रान्तरेचदेवी प्रतिकृत्या सह निरूप्यते न पुनर्मूलरूपेणेति वदन्ती मकरिका कापालिकानीतां प्रतिकृति राजपुत्र्या दर्शितवती। राजा- समीचीनमाह मकरिका। यथा मुख्यस्य सौन्दर्य प्रतिबिम्बस्य नो तथा। : सूर्याचन्द्रमसौ वारिसङ्क्रान्तौ क्लान्ततेजसौ।।१५।। कलहंसः- ततो मकरिके! मत्करलिखितेयं प्रतिकृतिः कुतस्तवैतस्याः प्राप्तिरिति सरोवं राजपुत्री व्याहरत्। कलहंस- (कपिञ्जला का) यह वचन था, हे दमयन्ति! बार-बार देखने के द्वारा तुम अपनी दृष्टि को क्यों अत्यधिक कष्ट दे रही हो? यह प्रतिकृति निश्चित रूप से दमयन्ती के शरीर से मिलती है (अर्थात् दमयन्ती के पति के अनुकूल है)। राजा- वाह! मनोगत भावों को जानने में प्रवीण कपिछले! वाह, उसके बाद, उसके बाद। कलहंस- और इसी बीच में देवी (दमयन्ती) प्रतिकृति के साथ मिलान कर रही हैं, न कि मूलरूप से ऐसा कहती हुई मकरिका ने कापालिक द्वारा लायी गयी प्रतिकृति को दमयन्ती को दिखाया। राजा- मकरिका ने युक्तिसंगत बात कही। जैसा सौन्दर्य मुख्य (अर्थात् मूल रूप में विद्यमान) वस्तु में होता है वैसा सौन्दर्य प्रतिबिम्ब (अर्थात् किसी वस्तु की बनाई गई छायाचित्र) में नहीं होता है। (क्योंकि) जल में संक्रमित (अर्थात् जल में दिखलाई पड़ने वाले सूर्य और चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब में) सूर्य और चन्द्रमा भी मलिन कान्ति (प्रभा, प्रकाश, तेज) वाले (ही) होते हैं।।१५।। कलहंस- इसके बाद, क्रोधपूर्वक राजपुत्री दमयन्ती ने कहा, मकरिके! मेरे हाथ से बनाई गई यह प्रतिकृति तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy