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________________ ५२ नलविलासे राजा - ( सहर्षमात्मगतम्) इयत्प्रत्युज्जीविताः स्मः । जानाति तावदेतत्परिकरलोको यथा दमयन्त्या निषधपतिरनुरूपो वरः । (प्रकाशम्) ततस्ततः । कलहंसः - अनन्तरं च स्मितं कृत्वा राजतनया देवस्य प्रतिकृतिपटं मम करतलादादाय पुनः प्रतिकृतिं पुलककोरकितमात्मानं सुचिरमालोकितवती । राजा - (ससम्भ्रमम्) लक्षितः कोऽप्यवलोकनस्याभ्युपायः कलहंसेन ? विदूषकः - (सरोषम् ) (१) भो! किं पुच्छेसि? पुलकिदेणं अंगेणं ज्जेव निवेदिदं । कलहंस:- लक्षितः कपिञ्जलावचनात् । राजा - ( ससम्भ्रमम् ) किं तत् कपिञ्जलावचः ? राजा - (हर्ष के साथ मन में) तो यह सुनकर मैं पुनः जीवित हो गया। जैसा कि उसके नौकर-चाकर (भी) जानते हैं कि दमयन्ती के लिए अनुकूल वर (पति) निषधाधिपति नल ही हैं। (प्रकट में) उसके बाद, उसके बाद । कलहंस - और इसके बाद दमयन्ती ने थोड़ा हँसकर महाराज (नल) की प्रतिकृति वाली पट्टिका को मेरे हाथ से लेकर फिर प्रतिकृति को (अर्थात् छाया चित्र को बार-बार देखती ) पुनः अपने को रोमाञ्चित करती हुई देर तक देखती रही । राजा- (सम्भ्रमपूर्वक) दमयन्ती के द्वारा प्रतिकृति) देखने का कोई कारण क्या कलहंस ने देखा ? विदूषक - ( क्रोध के साथ) अरे ! पूछ क्या रहे हो? उस (दमयन्ती) के रोमाञ्चित अङ्गों ने तो स्पष्ट कर ही दिया। कलहंस- कपिञ्जला के वचन से लक्षित हुआ । राजा- (सम्भ्रमपूर्वक) कपिञ्जला का वह वचन क्या था ? (१) भो! किं पृच्छसि ? पुलकितेनाङ्गेनैव निवेदितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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