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नलविलासे
राजा - ( सहर्षमात्मगतम्) इयत्प्रत्युज्जीविताः स्मः । जानाति तावदेतत्परिकरलोको यथा दमयन्त्या निषधपतिरनुरूपो वरः । (प्रकाशम्)
ततस्ततः ।
कलहंसः - अनन्तरं च स्मितं कृत्वा राजतनया देवस्य प्रतिकृतिपटं मम करतलादादाय पुनः प्रतिकृतिं पुलककोरकितमात्मानं सुचिरमालोकितवती ।
राजा - (ससम्भ्रमम्) लक्षितः कोऽप्यवलोकनस्याभ्युपायः कलहंसेन ? विदूषकः - (सरोषम् ) (१) भो! किं पुच्छेसि? पुलकिदेणं अंगेणं ज्जेव निवेदिदं ।
कलहंस:- लक्षितः कपिञ्जलावचनात् ।
राजा - ( ससम्भ्रमम् ) किं तत् कपिञ्जलावचः ?
राजा - (हर्ष के साथ मन में) तो यह सुनकर मैं पुनः जीवित हो गया। जैसा कि उसके नौकर-चाकर (भी) जानते हैं कि दमयन्ती के लिए अनुकूल वर (पति) निषधाधिपति नल ही हैं। (प्रकट में) उसके बाद, उसके बाद ।
कलहंस - और इसके बाद दमयन्ती ने थोड़ा हँसकर महाराज (नल) की प्रतिकृति वाली पट्टिका को मेरे हाथ से लेकर फिर प्रतिकृति को (अर्थात् छाया चित्र को बार-बार देखती ) पुनः अपने को रोमाञ्चित करती हुई देर तक देखती रही ।
राजा- (सम्भ्रमपूर्वक) दमयन्ती के द्वारा प्रतिकृति) देखने का कोई कारण क्या कलहंस ने देखा ?
विदूषक - ( क्रोध के साथ) अरे ! पूछ क्या रहे हो? उस (दमयन्ती) के रोमाञ्चित अङ्गों ने तो स्पष्ट कर ही दिया।
कलहंस- कपिञ्जला के वचन से लक्षित हुआ ।
राजा- (सम्भ्रमपूर्वक) कपिञ्जला का वह वचन क्या था ?
(१) भो! किं पृच्छसि ? पुलकितेनाङ्गेनैव निवेदितम् ।
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