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नलविलासे
अधिका वर्णना वर्ण्यात् क्वचिद् वर्ण्य ततोऽधिकम् । वर्ण्यस्याकान्ति- कान्तिभ्यां द्वयमप्युपपद्यते । । ९ ।। अत्यन्तकमनीयं हि स्तोतुं वाचोऽपि नेशते । स्वरूपतः सुधास्वादं वक्तुं ब्रह्मापि न क्षमः । । १० ।।
तदलमतिविस्तरेण । कलहंस ! कथय तावदितः स्थानाद् गतेन किमाचरितं त्वया ?
कलहंस:- देव! देवप्रतिकृतिं दमयन्तीप्रतिकृतिं चादाय देवपादान् प्रणम्य कतिपयैरेवाहोभिरहं कुण्डिनमधिगतवान् ।
कहीं वर्ण्य विषय से अधिक वर्णन होता है और कहीं वर्णन से अधिक वर्ण्यविषय । वर्णन की जाने वाली वस्तु यदि अकान्ति अर्थात् अल्प सौन्दर्य वाली है तो वर्णन का आधिक्य और सौन्दर्य सम्पन्न है तो वर्ण्य विषय की अधिकता, इसलिए दोनों सम्भव है । । ९ । ।
बहुत ही सुन्दर ( मनोहर वस्तु ) की स्तुति ( प्रशस्ति) वाणी के द्वारा नहीं की जा सकती है, क्योंकि (बिना अमृत का पान किये) अमृत के स्वरूप (मात्र) से उसके स्वाद आस्वदन को कहने में ब्रह्मा भी समर्थ नहीं हैं ।। १० ।।
इसलिए अधिक विस्तार करना व्यर्थ है । हे कलहंस ! तो यह कहो कि यहाँ से जाकर तुमने वहाँ (विदर्भदेश) में क्या-क्या आचरण किया ?
कलहंस - महाराज ! आपकी प्रतिकृति तथा दमयन्ती की प्रति कृति लेकर महाराज के चरणों को प्रणाम कर कुछ ही दिन में मैं कुण्डिन नगरी पहुँच गया।
'कान्तिर्द्युतिश्छविः" इत्यमरः । “कान्तिः शोभाभिकामयोः " इति
टिप्पणी- 'कान्ति'वैजयन्ती ।
टिप्पणी- ज्ञान दो प्रकार का होता है- सविकल्पक ज्ञान और निर्विकल्पक ज्ञान। जिस वस्तु की नाम जात्यादियोजना द्वारा अभिव्यक्ति हम कर सकते हैं वह सविकल्पक ज्ञान का विषय होता है, परन्तु यदि कोई पूछे कि चीनी कितनी मधुर है तो उसे वाणी के द्वारा हम चाहकर भी अभिव्यक्त नहीं कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि पूछने वाला व्यक्ति स्वयं उसे खाये । यही निर्विकल्पक ज्ञान है। ठीक यही स्थिति बहुत ही सुन्दर वस्तु की भी है; क्योंकि वह निर्विकल्पक ज्ञान का ही विषय होती है।
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