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________________ द्वितीयोऽङ्कः आः ! किं भविष्यति स कोऽपि कदापि विश्व कल्याणकन्दजलदप्रतिमो मुहूर्तः । यस्मिन् विदर्भतनयावदनेन्दुसङ्गा दुत्फुल्लुमक्षिकुमुदं तदिदं मम स्यात् ।।८।। कलहंसः - किञ्चिन्निर्निमेषनेत्रविषय एव वैदर्भीरूपप्रकर्ष: प्रत्यक्षीकृतोऽपि न शक्यते वाचा वर्णयितुम् । ४५ राजा - (सप्रश्रयमात्मगतम्) निर्निमेषनेत्रविषय एव वैदर्भीरूपप्रकर्ष इति पदमस्माकमुपश्रुतिः । ध्रुवं भविष्यति तद्दर्शनं नः । किम्पुरुषः - ( सासूयमिव ) तदस्ति किं किमपि यत्कविगिरामप्यगोचरः ? राजा - ( सरोषममात्यं प्रति) अयुक्तमभिदधासि । यतः - आह, जल को धारण करने वाले मेघ कान्ति की तरह (अथवा जल की वर्षा कर अन्नादि की ऊपज में वृद्धि करने वाले मेघकान्ति की तरह) वह अपूर्व क्षण, (जो) लोक के आनन्द का आधार है, क्या कभी होगा (आयेगा), जिस (अपूर्व क्षण) में विदर्भनरेश भीम की पुत्री दमयन्ती के मुख रूपी चन्द्रमा के सम्पर्क से मेरा (नल का) यह नेत्र रूपी कुमुद (रात्रिकमल) खिल उठेगा । । ८ । । कलहंस- कुछ (जो ) अपलक नेत्र से देखे जाने योग्य दमयन्ती के उत्कृष्ट रूप सौन्दर्य को साक्षात् देखकर भी उसका वर्णन वाणी के द्वारा नहीं किया जा सकता है। राजा - (आदरपूर्वक मन ही मन ) दमयन्ती के रूप-सौन्दर्य की श्रेष्ठता अपलक नेत्र का ही विषय है, यह तो हमें स्वीकार है । तो हमें उस (दमयन्ती) का दर्शन निश्चित होगा। किम्पुरुष- ( ईर्ष्या करे हुए की तरह) क्या ऐसी अपूर्व वस्तु भी हो सकती है, जो कवि-वाणी के द्वारा न देखी (वर्णन किया) जा सके। राजा- (क्रोधपूर्वक अमात्य किम्पुरुष के प्रति ) तुम यह अनुचित कह रहे हो । क्योंकि टिप्पणी- 'प्रतिम' – “प्रतिमो प्रभा" इति वैजयन्ती । "कुमुद' – “कुमुदं कैरवे” इति मेदिनी । “वदन' - " मुखं तु वदनम्” इति वैजयन्ती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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