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________________ ४४ नलविलासे किम्पुरुषः- (स्वगतम्) ध्रुवमीदशस्य स्त्रीरत्नस्य सम्प्राप्तिर्भरतार्द्धराज्यमुपनयति। कलहंस:- अपि च स्वयं विमृश्य सोऽयमवयवानां सौन्दर्यलेशो देवाय विज्ञपितः। परमार्थेन तु वदनशशिनो नेत्राम्भोजद्वयस्य कपोलयोः स्तनकलशयोर्दोष्णो भेनितम्बतटस्य च। तनुतनुलताज्योत्स्नावीचीनिमग्रदृशा मया न खलु कलितो दोषः कश्चिद् गुणो न च कश्चन।।७।। विदूषकः- (सहर्षम्) (१) ही ही भो! तीए अयं ज्जेव महंतो दोसो जं सरीरे तेएण पिखिदुं पि न सक्कीयदि। राजा- (सस्पृहमात्मगतम्) . किम्पुरुष- (अपने मन में) इसप्रकार की स्त्री-रत्न की प्राप्ति कराने वाले (कलहंस) को निश्चय ही महाराज के द्वारा अपना आधा राज्य उपहार स्वरूप देना चाहिए। कलहंस- और स्वयं भी विचार करके दमयन्ती के शरीरावयवों का, जो भी सौन्दर्य है, उसे आपको कह सुनाया। लेकिन वास्तविकता तो यही है कि (दमयन्ती के) चन्द्रमा रूपी मुख, कमलरूपी दोनों नेत्र, दोनों कपोलों, कलश रूपी स्तनों, भुजाओं, नाभि, नितम्ब प्रदेशों तथा पतली लता सी कृशाङ्गी की कान्ति रूपी तरङ्ग में गोता लगाते हुए मैंने न तो (उसमें) किसी दोष की गणना की और न तो गणों की ही।।७।। विदूषक- (हर्ष के साथ) अहा हा!. तब तो उसमें एक बहुत बड़ा दोष उसके शरीर का तेज है, जिसके कारण उसे देखा भी नहीं जा सकता। राजा- (स्पृहापूर्वक मन में) (१) अहो अहो! भो! तस्या अयमेव महान् दोषो यत् शरीरे तेजसा प्रेक्षितुमपि न शक्यते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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