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________________ ४२ - नलविलासे चलकमलविलासाभ्यासिनी नेत्रपत्रे दशनवसनभूमिबन्धुजीवं दुनोति। स्मरभरपरिरोहत्पाण्डिमागूढरूढ द्युतिविजितमृगाङ्का मोदते गण्डभित्तिः।।५।। राजा- यथायं कलहंसो वर्णयति, तथैव यदि तस्या अङ्गसन्निवेशो यदि च भगवाननुकूलो विरञ्चिस्तदान निषधाधिपतेरपरोभूर्भुवःस्वस्त्रयेऽपि पुण्यप्रागल्भ्यवान्। विदूषकः- (१) भो कलहंस! ताए कन्नगाए मह वत्ता कावि पुच्छिदा? मकरिका- (२) पुच्छिदा। केलिपरक मनोविनोद में निरन्तर संलग्न (दमयन्ती के) नेत्रपलक (जल में) डोलते हुए कामलों (तथा) दाँतों के निवास स्थान की भूमि ओष्ठ (की लाली) बन्धूक (वृक्ष के) पुष्पों को कष्ट दे रहा है (तथा) कामदेव युवावस्था से आलिङ्गित (इसके विस्तृत कपोल की) परम्परा प्राप्त अत्यन्त उत्कृष्ट धवलाता सुन्दरता रूपी (जो) कान्ति (उसके द्वारा) निश्चित रूप से चन्द्रमा को पराजित कर (उसका) विस्तृत कपोल शोभित हो रहा है।।५।। राजा- जिसप्रकार से यह कलहंस वर्णन कर रहा है, यदि वैसी ही दमयन्ती के अङ्गों की संरचना है और यदि भगवान् ब्रह्मा जी अनुकूल हैं तो तीनों लोक (स्वर्ग, भूलोक तथा पाताललोक) में दूसरा कोई भी निषधाधिपति नल के समान पुण्य-प्रताप वाला नहीं है। विदूषक- हे कलहंस! उस कन्या ने मेरे बारे में भी कुछ पूछा है। मकरिका- हाँ, पूछा है। (१) भो कलहंस! तया कन्यकया मम वार्ता काऽपि पृष्टा? (२) पृष्टा। टिप्पणी- 'बन्धुजीव'-- “बन्धूको बन्धुजीवश्च" इति वैजयन्ती। टिप्पणी- “विरश्चि:'- विरञ्च: कञ्चतुर्मुखः” इति वैजयन्ती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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