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________________ द्वितीयोऽङ्कः विदूषकः- (१) मह समाणविहवो होहि। मकरिका- (२) अज्ज! पणमामि। विदूषकः- (३) मम सरिसं रुविणं पई लहसु। राजा- (स्मित्वा) अहो! परमसम्पत्तिहेतुराशीर्वादः। विदूषकः- (४) भो! तए मह जोगं न किं पि विदम्भमंडलादो आणीदं? कलहंसः- अस्त्यानीतम्। राजा- (स्मित्वा सौत्सुक्यम्) अलमप्रस्तुतेन। सविस्तरं विदर्भराजतनयास्वरूपमावेदय। कलहंसः- देव! . विदूषक- मेरे समान वैभव को प्राप्त करो। मकरिका- आर्य! प्रणाम करती हूँ। विदूषक- मेरे समान रूपवान् पति को प्राप्त करो। राजा- (मुसकुराकर) ओह, तो सर्वश्रेष्ठ सम्पति (प्रिय वस्तु) की प्राप्ति के लिए (दिया गया) आशीर्वाद है। विदूषक- हे कलहंस! तुम विदर्भदेश से मेरे योग्य भी कोई वस्तु को लाए हो। कलहंस- लाया हूँ। राजा- (मुसकुराकर उत्सुकता के साथ) (अप्रस्तुत अप्रासङ्गिक) बात करना व्यर्थ है। विस्तारपूर्वक दमयन्ती के रूप सौन्दर्य का वर्णन करो। कलहंस- महाराज! (१) मम समानविभवो भव। (२) आर्य! प्रणमामि। (३) मम सदृशं रूपिणं पतिं लभस्व। (४) भो! त्वया मम योग्यं न किमपि विदर्भमण्डलादानीतम्? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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