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द्वितीयोऽङ्क:
३९ राजा- (सहर्षमात्मगतम्) यदि सयौवनायां विदर्भराजतनयायां रतिप्रीत्योः पुनरुक्तार्थता, तदानीम(मे) व स्थाने नलस्योत्कलिकाकापेयम्। (पुनर्दिशोऽवलोक्य) कथमास्थानीजनबहलकोलाहलेन कर्णयोः सप्रत्यूहो विदर्भराजात्मजा लावण्यसौरभवर्णनामृतास्वादः? (प्रकाशम्। सरोषम्)
मञ्जीराणि रणन्ति वारयत हुं वाराङ्गनाश्चामरग्राहिण्यो मणिकङ्कणावलि झणत्कारं चिरं रक्षत। पूर्ण पञ्चमगीतिरीतिभिरहो! गन्धर्वलोकाः! कथं वैदर्भीगुणसङ्कथां खरतरैर्मुष्णीथ पापा:! स्वरैः।।३।।
उत्कण्ठा बन्दरों के स्वभाव की तरह है। (पुनः दिशाओं को देखकर) सभिकजन के अधिक कोलाहल के कारण दमयन्ती के सौन्दर्य-सुगन्धि का वर्णन जिसका आस्वादन अमृत तुल्य है, उसे कानों के लिए विघ्नसंकुल क्यों बनाया जा रहा है? (प्रकट में। क्रोधपूर्वक)
(नृत्य कर रही) वाराङ्गनायें (अप्सरायें, वेश्यायें) अपने नूपुरों की झनझनाहट को रोकें (अर्थात् नृत्य बन्द करें), चाँवर ग्राहिणी (स्त्रियाँ अपने हाथों की) मणिनिर्मित कङ्गनों की खनखनाहट को देर तक रोकें (अर्थात् चाँवर डुलाना बन्द करें)। हे गन्धर्वो! सुर में गाया जाना वाला गीत भी पूर्ण हो चुका, (तब) अरे पापियो! (अपने) प्रखर स्वर के द्वारा दमयन्ती के सौन्दर्यवर्णन (रूपी) कथा को क्यों चुरा रहे हो। (अर्थात् सुनने में क्यों विघ्न डाल रहे हो)।।३।।
१. क. जासौ.। टिप्पणी- 'मञ्जीर'- “मञ्जीरो नूपुरः" इत्यमरः । “तुलाकोटिमनिभेदेऽम्बुदे स्यानूपुरेऽपि
च" इति मेदिनी। 'मणि-कङ्कण'- “मणिः स्त्रीपुंसयोरश्मजातौ मुक्तादिकेऽपि च" इति मेदिनी। 'कङ्कण'- “कङ्कणं करभूषायां सूत्रमण्डनयोरपि" इति मेदिनी। "हस्तमण्डनसूत्रे स्यात् कङ्कणो ना प्रतीसरः” इति रत्नकोषः। गन्धर्व- “गन्धर्वः पशुभेदे स्यात् पुंस्कोकिलतुरङ्गयोः। अन्तराभावसत्त्वे च गायने खेचरेऽपि च” इति
मेदिनी। २. ख.. वलिरणत्कारं।
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