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नलविलासे त्रैलोक्याद्भुतरूपदर्शनसुधासम्पर्कहेतुः पुनः पुण्यं वां नयने! फलिष्यति वपुर्लावण्यपुण्योत्सवे।।१।।
कलहंस! सावधानोऽस्मि। कलहंसः- देव!
काव्यं चेत् सरसं किमर्थममृतं, वक्त्रं कुरङ्गीदृशां चेत् कन्दर्पविपाण्डुगण्डफलकं राकाशशाङ्केन किम्? स्वातन्त्र्यं यदि जीवितावधि मुधा स्वर्भूर्भुवो वैभवं वैदर्भी यदि बद्धयौवनभरा प्रीत्या सरत्याऽपि किम्? ।।२।।
प्राप्त करो, तथा दोनों नेत्र! तीनों लोक में अद्भुतरूपदर्शनजन्म अमृत के सम्पर्क का जो कारण (है, उस दमयन्ती के) शरीर लावण्य सौन्दर्य वर्णन रूप इस आनन्द के अवसर पर तुम दोनों को (भी अपना) पवित्र फल प्राप्त होगा।।१।।
कलहंस! मैं सावधान हूँ। कलहंस- हे महाराज!
काव्य यदि सरस (शृङ्गारादि नव रसों से युक्त) है तो अमृत (सुधा) की क्या आवश्यकता, मृगनयनी का यदि कामदेव की तरह सुन्दर पीत-धवल (पाण्डु वर्ण का) कपोलमण्डल वाला मुख है तो पूर्णिमा के चन्द्रमा से क्या लाभ, स्वतन्त्रता यदि जीवनपर्यन्त हो तो स्वर्गलोक, भू-लोक तथा पाताल-लोक के वैभव राज्य से क्या काम तथा (उक्त)गुणों से युक्त युवावस्था से आलिङ्गित दमयन्ती (की) यदि (प्राप्ति) हो जाय तो अनुराग सहित प्रेम से भी क्या लाभ।।२।।
राजा- (हर्ष के साथ मन में) यदि युवावस्था से आलिङ्गित विदर्भनरेश की पुत्री दमयन्ती के रति और प्रीति दोनों का कथन पुनरुक्त है तब इस सभा में नल की
टिप्पणी- ‘स्वातन्त्र्यम्'- इस पंक्ति से कवि की स्वातन्त्र्य-प्रियता का परिचय मिलता
है। कवि काव्य रचना के क्षेत्र में ही नहीं अपितु जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वतन्त्रता के उपासक हैं। इसीलिए तो अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता के आगे स्वर्ग और तीनों लोक के वैभव को तुच्छ समझते हैं। इनकी स्वातन्त्र्यप्रियता का दूसरा प्रमाण यह है कि कवि ने अपनी स्वातन्त्र्य-प्रियता का वर्णन 'कौमुदीमित्रानन्द', निर्भयभीमव्यायोग' तथा 'जिनस्तव' के आरम्भ और अन्त में किया है।
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