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द्वितीयोऽङ्कः
राजा - ( सहर्षम् ) अनुगृहीताः स्मः । उपायसम्भावनायामुपेयमपि सम्भाव्यते । भवतु तावत् । दृष्टवानसि विदर्भराजात्मजाम् ?
कलहंस:- देव! अदृष्टविदर्भराजात्मजस्य कलहंसस्य विदर्भगमनं निष्फलम् ।
राजा - न केवलमदृष्टविदर्भराजात्मजस्य कलहंसस्य विदर्भगमनं निष्फलं, जन्मापि । तदलं वाचालताविस्तरेण । प्रथमं तावद् दमयन्तीतनुचारिमाणं समासतो विज्ञपय ।
कलहंसः - अयं समासः ।
राजा - (सप्रमोदम्)
वैदर्भीतनुवर्णनां रसघनश्रोतव्यसीमाभिमा
माकर्ण्य श्रवणौ ! युवां गमयथः स्वं जन्म तावत्फलम् ।
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राजा - (हर्ष के साथ) तब तो मैं अनुगृहीत हुआ। (क्योंकि) कारण की सम्भावना होने पर कार्य सिद्धि भी सम्भव है। अच्छा तो, विदर्भनरेश की पुत्री दमयन्ती को देख चुके हो ?
कलहंस - महाराज ! विदर्भनरेश की पुत्री दमयन्ती को नहीं देखने के कारण कलहंस का विदर्भ देश जाना व्यर्थ हो गया।
राजा - दमयन्ती को नहीं देखने के कारण कलहंस का विदर्भदेश को जाना ही केवल व्यर्थ नहीं हुआ, अपितु उसका जन्म भी ( व्यर्थ हो गया)। अतः विस्तार से कहने की कोई आवश्यकता नहीं। तबतक पहले दमयन्ती के शरीर सौन्दर्य को संक्षेप में कहो ।
कलहंस - संक्षेप में इसप्रकार है ।
राजा - (हर्ष के साथ) ---
हे दोनों कान ! रसपूर्ण (किसी वस्तु की) सुनने की जो सीमा है (वह) इस दमयन्ती के सौन्दर्य वर्णन को सुनकर तुम दोनों अपना जन्म होने का उतना फल
१ ख. विदर्भाधिरा. ।
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