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________________ द्वितीयोऽङ्कः ३५ कलहंस:- मकरिके ! यथाऽयं खरमुखो व्याहरति, तथा जाने समायाति देवः । तदास्थानमुपसर्पाव । ( इति परिक्रामतः ) (ततः प्रविशति सिंहासनस्थो राजा, किम्पुरुष - खरमुखादिकश्च परिवारः ) राजा - (स्मृत्वा विदूषकं प्रति) वयस्य! प्राप्तः कनकालङ्कारः ? (प्रविश्य) शेखरः- देव! प्राप्तः । राजा - ( ससम्भ्रमम्) कः प्राप्तः ? शेखरः- देव! दिष्ट्या 'वर्धसे । प्राप्तो मत्तमयूरोद्यानं सपरिच्छदः कलहंसः । कलहंस - मकरिके ! जैसा कि यह खरमुख बोल रहा है, उससे तो यही जान पड़ता है कि महाराज आ रहे हैं। इसलिए, हम लोग वहीं सभा में चलें । ( यह कहकर दोनों घूमते हैं ) (इसके बाद आमात्य किम्पुरुष, खरमुखादि परिजन तथा सिंहासनारूढ राजा प्रवेश करता है) राजा - ( स्मरणकर विदूषक से) मित्र ! स्वर्णालङ्कार प्राप्त हो गया ? (प्रवेशकर) शेखर - महाराज ! प्राप्त हो गया। राजा- (सम्भ्रमपूर्वक ) किसने प्राप्त किया ? शेखर - महाराज ! भाग्य से समृद्धि को प्राप्त करें। परिजन सहित कलहंस ने मतवाले मयूरों वाले उद्यान को प्राप्त किया। १ ख. वर्धाप्यसे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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