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________________ नलविलासे राजा - ( सप्रमोदमात्मगतम्) अहो! प्रयोजनसमर्थः शब्दपातः । ध्रुवमयं कलहंसः प्रयोजनमाधाय शीघ्रमायास्यति । भवतु । (प्रकाशम्) कलहंस ! चित्रकर्मालङ्कर्मीणान्युपकरणानि प्रगुणयितुं व्रज । मकरिके ! वैदर्भीप्रतिकृतिं त्वं गृहाण । वयस्य! दर्शय पन्थानं येन सन्ध्याविधिमाधाय सौधमलङ्कुर्महे । ३२ ( इति निष्क्रान्ताः सर्वे) ।। प्रथमोऽङ्कः ।। राजा - (हर्ष के साथ मन में) ओह! (यह तो ) कार्य सिद्ध करने वाली वाणी है । निश्चय ही यह कलहंस कार्य का सम्पादन कर शीघ्र ही आयेगा। अच्छा (प्रकट में) कलहंस ! चित्रकारी के उपयोग में आने वाली उपकरणों की सुसज्जित करने के लिए जाओ । मकरिके ! तुम दमयन्ती की प्रतिकृति लो। मित्र ! मार्ग दिखाओ, जिससे सन्ध्या-वन्दन का सम्पादन कर राजभवन को हम अलंकृत करें। ( यह कहकर सभी निकल जाते हैं) ।। प्रथम अङ्क समाप्त ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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