________________
प्रथमोऽङ्कः
३१
राजा - अनुगृहीतोऽस्मि वेधसा (पुनरपवार्य) कलहंस! त्रिजगतोऽप्यसुलभं वस्तु सम्पादयितुं न शक्नोषि ?
कलहंसः - किमपरमुच्यते ? यदि मत्प्राणैरपि सम्पद्यते, तदा सम्पादयामि |
(नेपथ्ये तूर्यध्वनिः)
कलहंसः - देव! युगादिदेवदेवतायतनसन्ध्याबलिपटहध्वनिरयम् । राजा - (स्वागतम्) अहो! परमं शकुनम् । (पुनर्विमृश्य) प्रेषयाम्येनं दमयन्त्याः पार्श्वे । इयं च मकरिका विदर्भभाषावेषाचारकुशला सहैव यातु ।
(पुनर्नेपथ्ये)
भो भो गन्धर्वलोकाः ! स्वकार्याणि कृत्वा शीघ्रमागच्छत युगादिदेवसन्ध्यासङ्गीतकमनुष्ठातुम् ।
राजा - तब तो मैं विधाता से अनुगृहीत हुआ हूँ। (पुनः अपवारित में ) कलहंस ! तीनों लोक में दुर्लभ वस्तु को तुम प्राप्त करा सकते हो ?
कलहंस- यह क्या कह रहे हैं? यदि मुझे अपना प्राण देकर भी वह कार्य सिद्ध करना पड़े तो भी मैं उसे सिद्ध करूँगा।
(नेपथ्य में तुरही आदि की ध्वनि)
कलहंस - महाराज ! देवों में युगादि देव भगवान् शंकर जी के मन्दिर में सन्ध्याकालीन पूजा-अर्चना के निमित्त बजाये जा रहे नगाड़े, (ढोल) की यह ध्वनि है।
राजा - (मन में) ओह ! ( यह तो ) बहुत ही शुभ सूचक है। (पुन: विचारकर) इसको दमयन्ती के पास भेजता हूँ। विदर्भदेश की भाषा - वेश- आचार में चतुर यह मकरिका भी साथ में ही जाय।
( पुन: नेपथ्य में)
हे गन्धर्वजन! आप सभी अपना कार्य करके युगादिदेव भगवान् शंकर जी की सन्ध्याकालीन संगीत (नृत्य, गीत वाद्य) का आरम्भ करने के लिए शीघ्र आ जाँय ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org