________________
३०
नलविलासे
(प्रविश्य) पुरुषः- एषोऽस्मि। राजा- अये माकन्द! खरमुखाय कनकालङ्कारं प्रयच्छ।
(यदाज्ञापयति देव इत्यभिधाय माकन्दो निष्क्रान्तः) विदूषकः-(१) जिदं मए जिदं मए। (उर्द्धवबाहुः प्रनृत्यति) राजा- (स्मित्वा)
संयोगे श्रीर्मदो भोगे वैकल्यस्य निबन्धनम्।
ततस्तु वस्तुचिन्तायां शक्त्या श्रीरधिका मदात्।।२२।। (पुन: साभिलाषं प्रतिकृतिमवलोक्य स्वगतम्) विफल एव ममावतारो जगति यदेतया सह सलीलमत्रोपवने न विहरामि। (प्रकाशम्) मकरिके! दमयन्ती कन्यका? मकरिका-(२) अध इं।
(प्रवेश करके) पुरुष- यह मैं हूँ। राजा- अरे माकन्द! खरमुख को स्वर्णाभूषण दो। (महाराज की जो आज्ञा यह कहकर माकन्द निकल जाता है) विदूषक- मैं जीत गया, मैं जीत गया (हाथ ऊपर उठाकर नाचता है)। राजा- (मुसकुराकर)
घनिष्ठता में लक्ष्मी (धन) तथा उपभोग की वस्तु में मदोन्मत्तता उत्तेजना का कारण है इसलिए (अपनी) योग्यता से वास्तविक विचार करने पर मदोन्मत्तता से लक्ष्मी (ही) अधिक श्रेष्ठ है।।२२।।
(पुन: अभिलाषा के साथ प्रतिकृति को देखकर मन में) यदि मैंने इस (सुन्दरी) के साथ लीलापूर्वक इस वन में विहार नहीं किया, तो इस जगत् में मेरा जन्म लेना ही व्यर्थ है। (प्रकट में) मकरिके! क्या दमयन्ती बाला है?
मकरिका- और नहीं तो क्या? (१) जितं मया जितं मया। (२) अथ किम्।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org