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प्रथमोऽङ्कः इन्दोः कुन्दसितैश्चितापि परितो दोषैव दोषा करै
श्छन्नस्यापि पयोधरैः प्रतिदिशं नाह्रः श्रियं गाहते।।२०।। (पुनर्विमृश्य) मकरिके! सत्यं मानुषीप्रतिकृतिरियम्? मकरिका-(१) किं अनहा भट्ट(ट्टि)णो विनवीयदि? राजा
कामं कामं कुसुमधनुषोऽप्यावहन्ती सशोके लोकेऽप्यस्मिन् यदि मृगदृशामीदृशी रूपलक्ष्मीः । क्लेशाकीर्णे तपसि विपुलस्वर्गभोगोत्सुकानां
मन्दीभूता खलु तदधुना प्राणभाजां प्रवृत्तिः।।२१।। (पुनर्विमृश्य) वयस्य! त्वत्प्रयत्नकृतोऽयमस्माकं रत्नलाभः। कोऽत्र भोः?
समर्थ नहीं है जैसे चारों ओर चन्द्रमा की कुन्दपुष्प के सदृश शुभ्र और कोमल किरणों से ढकी हुई रात्रि, रात्रि ही है तथा सभी दिशाओं में बादलों से आच्छत्र दिन, दिन ही होता है, (क्योंकि) रात्रि दिन की शोभा को धारण नहीं कर सकती है।।२०।।
(पुनः विचार करके) मकरिके! क्या यह सचमुच मनुष्य योनि में उत्पन्न किसी सुन्दरी की ही प्रतिकृति है?
मकरिका- तो क्या मैं स्वामी से असत्य भाषण करूँगी?
राजा- कामदेव के यथेष्ट मनोरथ को ढोती हुई मृग के समान सुन्दर नयन है जिसका ऐसी रूप-सौन्दर्य की लक्ष्मी यदि इस शोकाकुल संसार में भी है, तो प्रशस्त स्वर्गभोग के अत्यन्त इच्छुक (प्रयत्नशील) शरीरधारियों की रुचि क्लेश से व्याप्त तपस्या में अब निश्चित रूप से मन्द पड़ जायेगी।।२१।।
(पुन: मन में विचारकर) मित्र! तुम्हारे प्रयत्न से ही मुझे इस रत्न की प्राप्ति हुई। अरे! यहाँ कोई है?
(१) किमन्यथा भर्तुर्विज्ञप्यते?
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