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नलविलासे
राजा - ( सरोषम् ) पाखण्डिचाण्डाल ! कौक्कुटिक ! तापसछद्मा प्रणिधिरसि । कोत्र भोः ?
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(प्रविश्य)
दण्डपाणिः पुरुषः - एषोऽस्मि ।
राजा - अये भीम! एनं नियम्य कारायां क्षिप ।
पुरुषः- यदादिशति देवः (इत्यभिधाय कापालिकं जटासु गृहीत्वा भीमो निष्क्रान्तः)
कलहंस:- मूर्त्या शान्तात्मेवायं परमतीव दुष्टः । भद्रया मुद्रयैव प्रतिहतममूदृशां पाखण्डिनां शान्तात्मत्वम् । अपि च
रूप
शान्तात्माऽपि खलः खलः कथमपि व्यारूढबाढावमोद्भेदस्यापि सतो न वर्त्म चरितुं जङ्घालकेलिक्रमः ।
राजा - (क्रोध के साथ) अरे धूर्त चाण्डाल ! दम्भी भिक्षुक ! तपस्वी के छद्म तुम कोई दूत हो । अरे! यहाँ कोई है ?
में
( प्रवेश करके)
दण्डपाणि पुरुष - यह
राजा - अरे भीम ! इसको बाँधकर कारागार में रख दो।
मैं
हूँ।
पुरुष - महाराज की जैसी आज्ञा (यह कहकर कापलिक का केश पकड़कर भीम निकल जाता है ) ।
कलहंस - आकृति से तो यह शान्त पुरुष लगता था, परन्तु है बहुत ही दुष्ट । अपने आचरण से इसने पाखण्डी द्वारा धरे गये सज्जन पुरुष के वास्तविक स्वरूप अर्थात् अपने पाखण्डीपन को उजागर कर दिया।
और भी,
दुष्ट (व्यक्ति) सज्जन पुरुष (की मुद्रा में) भी दुष्ट ही होता है। किसी तरह सज्जन के मार्ग पर चलता हुआ (उसकी ) शीघ्रधावी पाद विक्षेप की कुटिल गति (उसकी) दुष्टता के आधिक्य को प्रकट कर ही देता है, (क्योंकि दुष्ट उस मार्ग पर चलने में
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टिप्पणी- 'कौक्कुटिक' – “स्याद्दाम्भिकः कौक्कुटिको यश्चादूरेरितेक्षणः" इत्यमरः । 'प्रणिधि – “प्रणिधिः प्रार्थने चरे" इति वैजयन्ती
१. ख. रौद्रया ।
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