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प्रथमोऽङ्कः राजा- भवतु तावत्, कथय कुत्रेयं समासादिता? कापालिक:- अत्रैव कानने।
राजा- यद्येवं ध्रुवमियं देवताप्रतिकृतिः काऽपि कस्यापि युगादिदेवदेवतायतनवन्दनार्थमागतरित्र (स्य त्रि) दशस्य हस्तानिपतिता, अनेन च समासादिता।
विदूषकः- (१) भो! दाव पच्छा एदा जाणेयव्वा, पढमं एदाए समीवे मं धरेध; जेण दिट्ठिदोसो से न भोदि।
राजा- (सप्रमोदम्) साधु वयस्य! साधु सर्वथा केलिकुशलोऽसि। (दिशोऽवलोक्य) काऽत्र भोः! करङ्कवाहिनीषु?
(प्रविश्य)
राजा- अच्छा, तो यह कहिये कि इसे आपने कहाँ प्राप्त किया? कापालिक- यहीं इसी वन में।
राजा- यदि यह सत्य है, तो निश्चित रूप से यह किसी देवता की प्रतिकृति है तथा युगादिदेव के मन्दिर में प्रार्थना के लिए आये हुए किसी देव के हाथ से गिर गयी, और इस प्रकार से आपने इसे प्राप्त किया।
विदूषक- मित्र! इस मुनि से जो कुछ पूछना है बाद में पूछना, पहले इस प्रतिकृति के समीप मुझे बैठा दो, ताकि इसको किसी की नजर न लग जाय।
राजा- (हर्ष के साथ) वाह मित्र! वाह, तुम हमेशा केलि-क्रीड़ा में प्रवीण हो। (बगल में देखकर) अरे! ताम्बूल लाने वाली यहाँ कोई है?
_ (प्रवेश करके)
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(१) भोस्तावत् पश्चादेषा ज्ञातव्या। प्रथमेतस्याः समीपे मां धरत, येन दृष्टिदोषोऽस्या न भवति।
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टिप्पणी- 'त्रिदश:' "त्रिदशा हव्ययोनयः' इति वैजयन्ती। अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा
विबुधाः सुरा:- इत्यमरः
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