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________________ २३ प्रथमोऽङ्कः कण्ठः कम्बुः कुचयुगमथो हेमकुम्भौ नितम्बो गङ्गारोधश्चरणयुगलं वारिजद्वन्द्वमेतत्।।१६।। किञ्च लावण्यपुण्यतनुयष्टिमिमां मृगाक्षी जाने स्वयं घटितवान् भगवान् विधाता। स्वोषितामपि चिरस्पृहणीयमङ्गविन्याससौरभमिदं कथमन्यथाऽस्याः।।१७।। (पुनर्विमृश्य) मुने! किमिदम्? कापालिक:- (सरोषमिव) यथेदं मौक्तिकप्रायमाभरणं, यथा दन्तपत्राञ्चितौ कर्णपाशौ तथा जाने दाक्षिणात्यायाः कस्या अपि योषितः प्रतिकृतिरियम्। राजा- (विलोक्य सस्पृहम्) वाले दो तट ने तथा इसके दोनों चरणों में दो कमल ने (अपना निवास स्थान बनाया है।)।।१६।। और भी, __ इस मृगनयनी कृशाङ्गी के शरीर का (जो) पवित्र सौन्दर्य है उससे तो मैं यही मानता हूँ कि (इसे) स्वयं भगवान् विधाता ने बनाया है, (क्योंकि) स्वर्गीय अप्सरायें भी क्रम से रचे गये (शरीर) अवयव के (जिस) सौन्दर्य की दीर्घ काल से स्पृहा कर रही हैं (शरीर अवयव का) वह पवित्र सौन्दर्य इस (प्रतिकृति में चित्रित दमयन्ती) का (स्वयं विधाता के बनाये बिना) सम्भव ही नहीं है।।१७।। (पुनः विचार करके) मुने! यह क्या है? कापालिक- (क्रोध के साथ) जिसप्रकार से (इसने) मोतियों का आभूषण तथा हाथी दाँत से बने कर्णाभूषण को धारण कर रक्खा है, उससे तो यही ज्ञात होता है कि यह छायाचित्र दक्षिण देश में रहने वाली किसी स्त्री का है। राजा- (देखकर स्नेह के साथ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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