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________________ नलविलासे कापालिक:- 'यथेच्छं विज्ञपय । २ विदूषकः - (१) जड़ मे इमं खट्टंगं समप्पेसि, ता तुह बहिणीए खंडणोवगरणं भुसलं भोदि । २० कापालिक : - ( सरोषम् ) आः पाप ! ब्राह्मणब्रुव! मामासादितपरमब्रह्माणं तपोधनमवजानासि ? एष ते खट्वाङ्गेन शिरः पातयामि । विदूषकः - ( सरोषमुत्थाय ) (२) अरे दासीपुत्त! कावालिया! लहु इदो एहि, जेण दे एदिणा जन्नोपवित्तेण मत्थयं तोडेमि । (उमौ नियुध्येते) राजा - अलमलमनुचिताचरणेन । कलहंस ! निवारय निवारय । कापालिक - जो चाहते हो कहो । विदूषक - यदि आप (अपना) अंग सोटा हमें दे दें, तो आपकी बहन के लिए किसी वस्तु को चूरने हेतु यह मूसल हो जायेगा । कापालिक - (क्रोध के साथ) अरे पापी ब्राह्मणनीच ! क्या तुम परमब्रह्म को जानने वाले मुझ तपस्वी का अपमान करते हो? इसी अंग सोटा से तुम्हारा मस्तक तोड़ता हूँ। विदूषक - ( क्रोध के साथ उठकर ) अरे दासीपुत्र कापालिक ! शीघ्र यहाँ आओ, जिससे कि में अपने जनेऊ से तुम्हारा मस्तक फोड़ दूँ । (दोनों परस्पर युद्ध करते हैं) राजा - यह अनुचित आचरण ठीक नहीं। कलहंस ! (विदूषक और कापालिक को) रोको, रोको । (१) यदि मे इदं खट्वाङ्गं समर्पयसि, तदा तव भगिन्याः खण्डनोपकरणं मुशलं भवति । (२) अरे दासीपुत्र ! कापालिक ! लघु इत एहि, येन त एतेन यज्ञोपवीतेन मस्तकं त्रोटयामि । १. क. यथेष्टं । २. क. जय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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