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प्रथमोऽङ्कः
कालापिक:- लम्बोदराभिधानोऽस्मि ।
विदूषकः- (१) आगिदीए सरिसं नामं ।
राजा - (सस्मितम्) वयस्य! सर्वस्याभ्यागतो गुरुरिति नैनं हसितुमर्हसि । विदूषकः - (२) समाणे वि बंभचारित्तणे किं मे एस हसदि, अहं कीस न हसिस्सं?
राजा- अप्रयोजकः सामान्योपन्यासः परिहासस्य ।
समेऽपि देहदेशत्वे तूलमप्यक्षि पीडयेत् । पाषाणघर्षणेनापि पादाः कान्तिमुपासते । । १५ । ।
विदूषकः - ( ३) भो कावालिया! 'जई मे पत्थणं विहलं न करेसि, ता किं पि पत्येमि ।
कापालिक - लम्बोदर नाम से जाना जाता
हूँ।
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विदूषक - आकृति के अनुरूप ही नाम है।
राजा - (हँसकर) मित्र! अभ्यागत हम सभी के गुरु हैं, इसलिए तुम्हें उपहास नहीं करना चाहिए |
विदूषक - समान रूप से हम दोनों ब्रह्मचारी हैं, फिर भी यह मेरा उपहास करता है, तो इसका उपहास मैं क्यों न करूँ ?
राजा - यह सामान्य दृष्टान्त उचित नहीं है ।
शरीर के अवयवों के समान होने पर भी आँख में गया छोटा सा रूई का कण भी कष्ट देता है, किन्तु पत्थर पर पैरों को रगड़ने से उसके तलवों की कान्ति ही बढ़ती है ।। १५ ।।
विदूषक - कापालिक ! यदि आप मेरी प्रार्थना निष्फल न करें, तो मैं कुछ निवेदन
करूँ।
(१) आकृत्याः सदृशं नाम ।
(२) समानेऽपि ब्रह्मचारित्वे किं मामेष हसति ? अहं कथं न हसिष्यामि ?
(३) भोः कापालिक ! यदि मे प्रार्थनां विफलां न करोषि तदा किमपि
,
प्रार्थये ।
१. क. जय ।
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