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नलविलासे
विदूषकः- (१) भो रायं! अहं तुह पिट्ठिभाए चिट्ठिस्सं। बीहामि एआओ बंधरक्खसाओ।
राजा-- (विलोक्य) कथं खट्वाङ्गसङ्गी कापालिकः? स्वागतं तपोधनाय।
कलहंसः- मुने! इदमासनमास्यताम्।
कापालिकः- (स्वगतम्) अयमपि तावद्रष्टव्यः। कदाचिदेतदीयमपि चरितं कलचुरिपतिः पृच्छति। (प्रकाशम्) स्वस्ति महाराजाय।
राजा- कुतस्तपोधनः? कापालिक:- साम्प्रतं विदर्भमण्डलात्।
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विदूषक- राजन्! मैं आपके पीछे खड़ा रहूँगा। (क्योंकि) इस ब्रह्मराक्षस से मैं डरता हूँ।
राजा- (देखकर) अरे! खोपड़ी जड़े दण्ड को धारण करने वाला (यह तो) औघड़ है। तपोधन का स्वागत है।
कलहंस- कापालिक! इस आसन पर बैठिये।
कापालिक- (अपने मन में) तो यह भी परीक्षा करने के योग्य है। कदाचित् कलचुरिपति के चरित को ही पूछना चाहें। (प्रकट में) महाराज का कल्याण होवे।
राजा- कहाँ से तपोधन.....? . कापालिक- अभी तो विदर्भदेश से।
(१) भो राजन्! अहं तव पृष्ठभागे स्थास्यामि, बिभेमि एतस्माद् ब्रह्मराक्षसात्।
टिप्पणी- 'खट्वा' - ऐसी लकड़ी जिसके सिरे पर खोपड़ी जड़ी हो, यह भगवान् शंकर
जी का हथियार समझा जाता है तथा संन्यासी और योगी इसे धारण करते हैं। 'कापालिक'- शैव सम्प्रदाय के अन्तर्गत विशिष्ट सम्प्रदाय का वामाचारी, जो मनुष्य की खोपड़ियों की माला धारण करता और उसी में खाता-पीता है। 'तपोधन'"तपोधनस्तापसे स्यान्मुण्डीर्यां तु तपोधनाः” इति मेदिनी।
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