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________________ प्रथमोऽङ्कः राजा- वयस्य! क्षणं मर्षय यावत् सम्यग् निर्णयामि। विदूषकः-(१) भो! ता न निस्सरिस्सं। नियबंभणीचलणसमरणेण नटुं मह भयं। कलहंसः- (विहस्य) अतीव ब्राह्मणीभक्तोऽयम्। राजा- कलहंस! स्थितिरियं जगतः। आत्मन्यपत्ये (त्य-) दारेषु प्राणेषु विभवेषु च। इतो नृप इतो रङ्कस्तुल्या प्रीतियोरपि।।१३।। तत उत्थाय स्वयं विलोकय कोऽयं द्वारि। (कलहंसो निष्क्रम्य पुनः प्रविशति) राजा- मित्र! जबतक मैं सोच-विचार कर कोई निर्णय नहीं ले लेता हूँ, तबतक तो ठहरो। विदूषक-मित्र! अब मैं नहीं भागूंगा, (क्योंकि) अपनी पत्नी के चरण का स्मरण हो जाने से मेरा भय समाप्त हो गया। कलहंस- (हँसकर) यह तो पत्नी का अत्यन्त भक्त है। राजा- कलहंस! यह स्थिति तो सम्पूर्ण जगत् की है स्वयं के प्रति, सन्तान के प्रति, पत्नी के प्रति, प्राण के प्रति तथा धन के प्रति जितना प्रेम राजा को होता है, उतना ही निर्धन को। दोनों के प्रेम में कोई अन्तर नहीं होता है।।१३।। अत: उठकर स्वयं देखो कि दरवाजे पर कौन है? । (कलहंस निकलकर पुन: प्रवेश करके) (१) भोः! तन्त्र निःसरिष्यामि, निजब्राह्मणीचरणस्मरणेन नष्टं मम भयम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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