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________________ १४ नलविलासे कोऽत्र भो? निवेद्यतां निषधाधिपतयेऽस्मदागमनम्। राजा- (समाकर्ण्य) वयस्य! विलोकय गत्वा कोऽयम्। विदूषकः(१) जं आणवेदि भवं (इत्यभिधाय निष्क्रम्य, ससम्भ्रमं प्रविश्य) भो लहुं उत्थेहि उत्थेहि, जेण पलायम्ह। राजा- विश्रब्धमभिधीयतां किं भयस्य कारणम्। विदूषकः- (२) एगो पिसाओ दुवारे चिट्ठदि। राजा- असम्भावनीयोऽयमर्थः। कुतो नामात्र भगवधुगादिदेवतायतनपावने वने पिशाचानां सम्भवः? विदूषकः- (सरोषम्) (३) युगादिदेवावटुंभेण तुझे इह ज्जेव चिट्ठध। अरे! यहाँ कोई है? राजा नल से मेरे आगमन का समाचार कहो। राजा- (सुनकर) मित्र! जाकर देखो कि यह कौन है? विदूषक- आपकी जो आज्ञा। (यह कहकर जाकर के, पुनः घबराहट के साथ प्रवेश कर) अरे! उठो, शीघ्र उठो जिससे भाग चलें। राजा- शान्त होकर कहो कि भय का क्या कारण है? विदूषक- दरवाजे पर एक पिशाच खड़ा है। राजा- यह तो सर्वथा असम्भव है। भगवान् युगादिदेव के मन्दिर से पवित्र इस उद्यान में पिशाच का होना कैसे सम्भव है? विदूषक- (क्रोध के साथ) युगादिदेव के सहारे तुम लोग यहीं ठहरो। (१) यदाज्ञापयति भवान्। भो! लघूत्तिष्ठोत्तिष्ठ, येन पलायामहे। (२) एकः पिशाचो द्वारे तिष्ठति। (३) युगादिदेवावष्टम्भेन यूयमिहैव तिष्ठत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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