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________________ प्रथमोऽङ्कः राजा- अस्तु प्रत्यूहगर्भः, पर्यन्ते चेच्छुभोदकः। नैमित्तिकः- कः सन्देहः? राजा- दैवज्ञ! स्वप्नार्थपरिज्ञानप्रत्ययहेतुं कमप्यचिरभाविनमर्थमावेदय। नैमित्तिकः- परमप्रीतिहेतुरचिरादेव देवस्य कोऽप्यर्थः सम्पत्स्यते। राजा- (विमृश्य) कोऽत्र भोः? (प्रविश्य) पुरुषः- एषोऽस्मि। आज्ञापयतु देवः। राजा- अये सिंहलक! दर्शय मत्प्रसादस्य फलं नैमित्तिकाय। सिंहलकः- यदादिशति देवः। (इत्यभिधाय सनैमित्तिको निष्क्रान्त:) (नेपथ्ये) राजा- अच्छा, विघ्नयुक्त है, किन्तु अन्त में शुभफल (देने) वाला है। नैमित्तिक- इसमें क्या सन्देह? राजा- हे दैवज्ञ! स्वप्नार्थ के सम्यक् ज्ञान का जो निश्चित हेतु है तथा उस हेतु से जिस किसी अभीष्ट फल की प्राप्ति होने वाली है उसे शीघ्र कहें (बतायें)। नैमित्तिक- महाराज की परमप्रीति का जो कारण है, उस अपूर्व फल को यथाशीघ्र प्राप्त करेंगे। राजा- (मन में विचार कर) अरे! यहाँ कोई है? (प्रवेश करके) पुरुष- मैं हूँ। महाराज आज्ञा दें। राजा- अरे सिंहलक! मेरी प्रसन्नता का फल नैमित्तिक को दिखाओ (अर्थात् दो)। सिंहलक- महाराज की जैसी आज्ञा (यह कहकर सिंहलक और नैमित्तिक चले जाते हैं) (नेपथ्य में) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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