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नलविलासे राजा- इदमासनमास्यताम्। (नैमित्तिक उपविशति) अद्यास्माभिस्त्रियामातुर्ययामचतुर्भागे स्वप्नो दृष्टः। यथा कुतोऽप्यागत्यास्मत्करतलमारूढा प्रथममेका मुक्तावली, पुनः प्रभ्रष्टा, पुनरप्यस्माभिरादाय कण्ठे निवेशिता। ततो वयं तया प्रकामं कान्तिमन्तः सञ्जाताः।
नैमित्तिकः- (विमृश्य) देव! प्रशस्ततमोऽयं स्वप्नः। स्त्रीरत्नलाभेन महता प्रतापेन च फलिष्यति। किन्तु प्रत्यूह- (इत्यधोक्ते सभयम्)
राजा-दैवज्ञ! मा भैषीर्यथाज्ञातमावेदय। नैमित्तिकः- किन्तु प्रत्यूहगर्भः।
विदूषकः- (दण्डमुद्यम्य) (१) अरे दासीए पुत्ता! नेमित्तिआ! खरमुहे वि सन्निहिदे पियवयस्सस्स पच्चूहो?
राजा- इस आसन पर विराजिये। (नैमित्तिक बैठ जाता है) आज मैंने रात्रि के चौथे पहर के चतुर्थ भाग में एक स्वप्न देखा। जहाँ कहीं से एक मुक्तावलि पहिले मेरी हथेली पर आई, पुन: गिर गयी, फिर मैंने उसे लेकर गले में पहन लिया। पश्चात् उस मुक्तावलि के कारण मैं अत्यधिक कान्तिमान् हो गया।
नैमित्तिक- (मन में विचारकर) महाराज! यह स्वप्न तो बहुत उत्तम है। और, स्त्रीरूपी रत्न की प्राप्ति से आप तेज, धन तथा सैन्य से अधिक सम्पन्न हो जायेंगे। किन्तु विघ्न- (भयभीत होकर आधा ही उच्चारण करता है)।
राजा- हे दैवज्ञ! डरें नहीं, आप जो जानते हैं,कहें। नैमित्तिक- किन्तु (स्वप्न) विघ्नयुक्त है।
विदूषक- (डण्डा उठाकर) अरे दासी-पुत्र नैमित्तिक! खरमुख के रहते प्रियमित्र का कार्य विघ्नयुक्त (यह तुम क्या कह रहे हो)?
(१) अरे दास्याः पुत्र! नैमित्तिक! खरमुखेऽपि सन्निहिते प्रियवयस्यस्य प्रत्यूहः? टिप्पणी- 'प्रताप'- “स प्रताप: प्रभावश्च यत्तेज: कोशदण्डजम्” इत्यमरः । टिप्पणी- 'दैवज्ञ' “सांवत्सरो ज्यौतिषिको दैवज्ञगणकावपि। स्युर्मीहूर्तिकमौहूर्तज्ञानिकार्तान्तिका
अपि।" इत्यमरः टिप्पणी- ‘खर.'-"चक्रीवन्तस्तु वालेया रासभा गर्दभा: खराः" इत्यमरः ।
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